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________________ [२२१ व्रतोय खण्ड। परदष्वं देहाई कुणइ मत्ति व जाम तस्सुवरि । परसमयरदो तावं वदि कस्मेहि विविहहिं ॥ ३४ ॥ भावार्थ-देहादिक परद्रव्य हैं । जबतक इनके उपर ममता करता है तबतक परसमयरत है और नाना प्रकार कर्मोसे बंधता है। दसणणाणचरितं जोई तस्सेह णिच्छ्यं भणियं । जो वेयह अप्पाणं सचेयणं सुद्धभावहूं ॥ ४५ ॥ भावार्थ-जो शुद्ध भावोंमें स्थित ज्ञानचेतना सहित अपने आत्माको अनुभवमें लेता है उसीके ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यकचारित्र निश्चयनयसे कहे गए हैं। सारसमुच्चयमें श्री कुलभद्र आचार्य कहते हैंनिर्ममत्त्वं परं तत्त्वं निर्ममत्त्वं परं सुखं । निर्ममत्त्वं परं बीजं मोक्षस्य कथितं बुधैः ॥ २३४ ॥ निर्ममत्त्वे सदा सौख संसारस्थितिच्छेदनम् । जायते परमोत्कृष्टमात्मनः संस्थिते सति ॥ २३५ ॥ भावार्थ-ममतारहितपना ही उत्कृष्ठ तत्त्व है। यही परम सुख है, यही मोक्षका बीज है ऐसा बुद्धिमानोंने कहा है। जो आत्मा ममतारहित भावमें स्थिति प्राप्त कर लेता है उसको परम उत्तम संसारकी स्थितिको छेदनेवाला सुख उत्पन्न हो जाता है। ___ इसलिये जहां पूर्ण स्वस्वरूपमें रमणता न होकर कुछ भी किसी जातिका पर पदार्थसे रागका अंश है वह कमी भी मुक्ति नहीं प्राप्त करसता है । युधिष्ठिरादि पांच पांडव शत्रुजय पर्वतपर आत्मध्यान कर रहे थे जब उनके शत्रुओंने गर्म गर्म लोहेके गहने पहनाए तव तीन बड़े भाई तो ध्यानमें मग्न निश्चल रहे किंचित् भी किसीकी ममता न करी इससे वे उसी भवमें मोक्ष होगए, परंतु
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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