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________________ तृतीय खण्ड । [ २१७ भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने और भी स्पष्ट कर दिया है कि आत्मज्ञान ही यथार्थ मोक्षका मार्ग है, क्योंकि आत्मज्ञानके प्रभाव से ज्ञानी जीव करोड़ों भवोंमें क्षय करने योग्य कर्म बंधनोंको क्षण मात्र क्षय कर डालता है । आत्मज्ञान रहित जिन कर्मोको करोड़ों जन्म ले लेकर और उनका फल भोग भोगकर क्षय करता है उन कमको ज्ञानी जीव विना ही उनका फल भोगे उनकी अपनी सत्ता निर्जरा कर डालता है । यह आत्मज्ञान निश्रय रत्नत्रय स्वरूप है । यहीं स्वानुभव है । यह निश्श्रय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान व निश्चय सम्यग्वारित्र है । यही ध्यानकी अग्नि है जिसकी तीव्रता से भरत चक्रवर्तीने एक अंतर्मुहूर्त्त में चारों घातिया कर्मोंका क्षय कर डाला | जिनको यह स्वानुभवरूप आत्मज्ञान नहीं प्राप्त है वे व्यवहार रत्नत्रयके धारी हैं तौ भी मोक्षमार्गीीं नहीं हैं। वृत्तिकारने आत्मज्ञान पैदा होने की सीढ़ियां बताई हैं पहली (१) सीढ़ी यह है कि जिनवाणीको अच्छी तरह पढ़कर हमे सात तत्त्वोंको जानकर उनका श्रद्धान करना चाहिये तथा विषय कषा घटानेके लिये मुनि वा गृहस्थके योग्य व्रतादि पालना चाहिये। (२) दूसरी सीढ़ी यह है कि मिद्ध परमात्माका ज्ञान, श्रद्धान करके उनके ध्यानका अभ्यास करना चाहिये । (३) तीसरी सीढ़ी यह है कि अपने ही आत्मा निश्रयसे शुद्ध परमात्मा जानना, श्रद्धान करना व रागादि छोड़ उसीकी भावना भानी । (४) चौथी सीढ़ी यह है कि विकल्प रहित स्वानुभव प्राप्त करना । जहाँ यद्यपि श्रद्धान ज्ञान, चारित्र है तथापि कोई विकल्प या विचार नहीं है मात्र अपने खरूपानंदमें मग्नता है । यही आत्मज्ञान है । यह सीढ़ी साक्षात्
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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