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________________ २१६] श्रीप्रवचनसारटोकाई विशेषार्थ-निर्विल्प समाधिरूप निश्चय रत्नत्रयमई विशेष भेद ज्ञानको न पाकर अज्ञानी जीव करोड़ों जन्मोंमें जिस कर्मबंधको क्षय करता है उस कर्मको ज्ञानी जीव तीन गुतिने गुप्त होकर एक उच्छ्वासमें नाश कर डालता है । इसका भाव यह है कि बाहरी जीवादि पदार्योंके सम्बन्धमें जो सम्यग्ज्ञान परमागमके अभ्यासके वलसे होता है तथा जो उनका श्रद्धान होता है और श्रद्धान ज्ञानपूर्वक व्रत आदिका चारित्र पाला जाता है, इन तीन रूप व्यवहार रत्नत्रयके आधारसे सिद्ध परमात्माके स्वरूपमें सम्यक्श्रद्धान तथा सम्यग्ज्ञान होकर उनके गुणोंका स्मरण करना इमीके अनुकूल जो चारित्र होता है। फिर भी इसी प्रकार इन तीनके आधारसे जो उत्पन्न होता है । निर्मल अखंड एक ज्ञानाकार रूप अपने ही शुद्धात्मामें जानन रूप सविकल्प ज्ञान तथा "शुद्धात्मा ही ग्रहण करने योग्य है" ऐसी रुचिका विकल्प रूप सम्यग्दर्शन और इसी ही आत्माके खरूपमें रागादि विकल्पोंको छोड़ने हुए जो सविकल्प चारित्र फिर भी इन तीनोंके प्रसादसे जो उत्पन्न होता है विकल्प रहित समाधिरूप निश्चय रत्नत्रयमई विशेष स्वसंवेदन ज्ञान उसको न पाकर अज्ञानी जीव करोड़ों जन्मोंमें जिस कर्मका क्षय करता है उस कर्मको ज्ञानी जीव पूर्वमें कहे हुए ज्ञान गुणके होनेसे मन वचन कायकी गुप्तिमें लवलीन होकर एक श्वास मात्रसे ही या लीला मात्रसे ही नाश कर डालता है। इससे यह बात जानी जाती है कि परमागम ज्ञान, तत्वार्थ श्रद्धान तथा संयमीपना इन व्यवहार रत्नत्रयोंके होनेपर भी अभेद या निश्चय रत्नत्रय त्वरूप स्वसंवेदन ज्ञानकी ही मुख्यता है।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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