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________________ [२१३ तृतीय खण्ड। ___ भावार्थ-जो मोक्षका इच्छक धीर पुरुष है वह प्रकाशमान ज्ञान रूपी महावतसे चलाए हुए श्रद्धानरूपी निर्मल गंधहस्तीपर आरूढ़ होकर चारित्ररूपी सेनाके परिवारसे वेष्ठित हो आत्मसमाधि रूपी अस्त्रसे कर्मरूपी शत्रुओंको जीत लेता है । श्री नागसेन मुनिने तत्वानुशासनमें भी कहा है:यो मध्यस्थः पश्यति जानात्यात्मानमात्मनात्मन्यात्मा । हगवगमचरणरूपस्स निश्चयान्मुक्तिहेतुरिति जिनोकिः ॥३२॥ भावार्थ-जो वीतरागी आत्मा अपने आत्मामें अपने आत्माके द्वारा अपने आत्माको देखता जानता है वही सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र स्वरूप निश्चयसे मोक्षमार्गी है ऐसा जिनेन्द्रने कहा है। इसलिये रत्नत्रयकी एकता ही मोक्षमार्ग है यह निश्चय करना योग्य है । वृत्तिकारने दीपकका दृष्टांत दिया है कि जिसके दीपकका ज्ञान है कि इससे देखके चलना होता है व यह श्रद्धान है कि इसके द्वारा देखकर चलनेसे खाई खंधकमें गिरना नहीं होगा और फिर वह जब चलाता है तब दीपकसे देखकर चलता है तब ही दीपकसे वह अपना कल्याण कर सक्ता है । इसी तरह साधुको परमागमका ज्ञान व श्रद्धान करके उसके अनुसार चारित्र पालना चाहिये । निश्चय स्वरूपाचरणके लिये व्यवहार रत्नत्रयका साधन करना चाहिये । तब ही ज्ञानकी व श्रद्धानकी सफलता है। इस तरह भेद और अभेद खरूप रत्नत्रयमई मोक्षमार्गको स्थापनकी मुख्यतासे दूसरे स्थलमें चार गाथाएँ पूर्ण हुई । - यहां यह भाव है कि बहिरात्मा अवस्था, अंतरात्मा अवस्था,
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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