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________________ । २०८] श्रीमवचनसारटीका । है । क्योंकि ज्ञानावरणीय और मोहनीय कर्मोका उदय अभी विद्यमान है । इन्हीं कर्मोंके। नाशके लिये सम्यग्दृष्टिको स्वानुभूतिकी लब्धि प्राप्त होजाती है । कपायोंके कारणसे यद्यपि सम्यग्दृष्टि गृहस्थको गृहस्थारंभमें, राज्यकार्यमें, व्यापारमें, शिल्पकर्म व कृषिकर्म आदिमें वर्तन करना पड़ता है तथापि वह अंतरंगसे इनकी ऐसी गाढ़ रुचि नहीं रखता है जैसी गाढ़रुचि उसको स्वानुभव करनेकी होती है इसलिये वह अपना समय स्वानुभव करनेके लिये निकालता रहता है । इसी स्वानुभवके अभ्याससे सत्तामें स्थित कपायोंकी शक्ति घटती जाती है । जव अप्रत्याख्यानावरण कषाय दव जाता है तब वह बाहरी आकुलता घटानेको श्रावकके बारह व्रतोंको पालने लगता है। इसी तरह स्वानुभवका अभ्यास भी बढ़ता जाता है । इस वढ़ते हुए स्वरूपाचरणके प्रतापसे जब प्रत्याख्यानावरण कषाय भी दब जाते हैं तब मुनिका पद धारणकर तथा सर्व परिग्रहका त्याग कर परम वीतरागी हो आत्मध्यान करता है और उसी समय उसको यथार्थ श्रमण यां मुनि कहते हैं । इसीलिये यदि कोई सम्यक्तके विना इंद्रियदमन करे, प्राणी-रक्षा पाले, साधुके सर्व बाहरी चारित्रका अभ्यास करे तव भी वह संयमी नहींहोसक्ता है, क्योंकि वह न खरूपाचरणको पहचानता है और न उसकी प्राप्तिका यत्न ही करता है। इसलिये यही मोक्षमार्ग है, जहां सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र तीनों एक साथ हों, इसी मार्गपर जो आरूढ़ है वही सयंमी है या साधु है । जबतक भावमें सम्यग्दर्शन नहीं होता है तबतक साधुपना नहीं होता है। भावपाहुड़में स्वामी कुन्दकुन्दने कहा है
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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