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________________ तृतीयंERATE [[२७ हौरी जान जति हनिधियोंकिगश्रुतज्ञानगरूपे आगमीक्षिण नके समान है ।'आर्गम द्वारा पदार्थोसी जान लेने पर जव स्वसवेदन ज्ञान याँ स्वात्मानुमव पैदा हो जाता है तब उसंग स्वसंवेदनकै चलसे जव केवल ज्ञान पैदा होता है ताकि हीसीपदार्थ प्रत्यक्षा होजीते है कि इसी कारणसे आगमकी चक्षुले परम्परा सर्वं होगदखाता है कि जीमाथिस गाथामेंन्यह बात बताई हैं। किसाश्रुतज्ञानाच शास्त्रज्ञानों बड़ी शक्ति है जैसे किलजाबीन्सर्वापदा को जानते हैं। वैसा तंज्ञानी सर्व पदार्थोको जानती हैं | केवला अंतरण्यह है कि श्रुतंजनि परोक्ष हि केवलज्ञान प्रत्यक्ष है गाजरहेकीविाणीसे जो पदार्थोकीस्वरूपाप्रगटी हुआ है। उसीको गणधरोंकाधारणीमें लेकर आचारांग आदिद्वादश अंगकी रचना की उसकेअनुसार उनके शिप्य प्रशियोंऔिराशास्त्रोंकी रचना की- जैन शास्त्रों में बिहीद ज्ञानामिलता है जो केवली महाराजने प्रत्यक्ष जानकार मगट किया इसलिये आगमके द्वारा हमसब कुछ ननिने योग्योप्नानासाहैं । वास्तवमें जानने योग्य इस' लोकनाभीतर पाणलानेवालाछा द्रव्य हैं अनंतानंतानविमानंतीनंतपुरला एकंगधर्म, एकाअधीम एक आकाश और असंख्यालाफाल द्रव्य दिन सबका स्वरूमा जानना चाहिये कि इनमें सामान्यागुणाक्या क्या हैं तथा विशेष गुणक्या क्या आगम अच्छी तरहायता देता है। किम् अस्तित्वा वस्तुली प्रमेयत्कदिव्यत्व, प्रदेशत्वा मगुरुलधुत्वान्यो प्रसिद्ध सामान्या गुण हैं । तथान्येतनाशिनीवौ विशेषगुणता स्पर्शादित्युद्गलके विशेष गुणाति सहकारी धर्मकाविशेष गुण स्थिति सहकारी अधर्मको अवकाश दानासहकारी आनाशकातना सहकारीकालका विशेष
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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