SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय खण्ड। प्रारम्भ। आगे चारित्रतत्त्वदीपिकाका व्याख्यान किया जाता है। . उत्थानिका-इस ग्रन्थका जो कार्य था उसकी अपेक्षा विचार किया जाय तो ग्रन्थकी समाप्ति दो खंडोंमें होचुकी है, क्योंकि " उपसंपयामि मम्मं " मैं साम्यभावमें प्राप्त होता हूं इस प्रतिज्ञाकी समाप्ति होचुकी है। तो भी यहां क्रमसे ९७ सत्तानवें गाथाओं तक चूलिका रूपसे चारित्रके अधिकारका व्याख्यान प्रारम्भ करते हैं । इसमें पहले उत्सर्गरूपसे चारित्रका संक्षेप कथन है उसके पीछे अपवाद रूपसे उसी ही चारित्रका विस्तारसे व्याख्यान है । इसके पीछे श्रमणपना अर्थात् मोक्षमार्गका व्याख्यान है । फिर शुभोपयोगका व्याख्यान है इस तरह चार अन्तर अधिकार हैं । इनमेंसे भी पहले अन्तर अधिकारमें पांच स्थल हैं । "एवं पणमिय सिद्ध". इत्यादि सात गायाओं तक दीक्षाके सन्मुख पुरुपका दीक्षा लेनेके विधानको कहनेकी मुख्यतासे प्रथम स्थल है । फिर " वद समिर्दिदिय " इत्यादि मूलगुणको कहते हुए दूसरे स्थलमें गाथाएं दो हैं । फिर गुरुकी व्यवस्था बतानेके लिये "लिंगगणे" इत्यादि एक गाथा है। तैसे ही प्रायश्चितके कथनकी मुट्यतासे "मयदेहि" इत्यादि गाथाएं दो हैं इस तरह समुदायसे तीसरे स्थलमें गाथाएं तीन हैं। आगे आधार आदि शास्त्रके कहे हुए क्रमसे साधुका संक्षेप समाचार कहने लिये "अधिवासे व वि" इत्यादि चौथे स्थलमें गाथाएं तीन हैं। उसके पीछे भाव हिंसा द्रव्य हिंसाके त्यागके लिये " अपय
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy