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________________ तृतीर्थाटन [[gee अत्यन्त आवश्यक्ता है। (मित्र) आत्मज्ञानविमा आत्म मनन कभी नहीं हो सक्ती है ) ( सूत्रपाहुंड़ कहा है सुम्मि जाणर्माणी भव भवणीस व सी सूई निही असुाणास मुक्त सही नाही नासुतथं जिणर्मणियं जीवजीवादि बहुविहंग माताजी जाणतासो हुन् सहोपाएका निगम भावार्थ- जो शास्त्रोकानाचानेवाला है। वहीं संसार नेका नाश करता है । जैसे लोहे की सूई डोने विना लष्टा होती परन्तु -ढोरा सहित होने पर, नष्ट नहीं होती है। सूत्र के अर्थको जितेन्द्र भगवान कहा है। तथा सूत्रमें जीक अजीव आदि बहुत प्रकार पदार्थोंका वर्षांच किया, चाया, के तथा यहड़ताया गया के हिंड त्यागने योग्य क्या है तथा ग्रहण करने योग्य क्या है जो सूत्रको जानता है वही सम्यग्दृष्टी rife इसलिये (ऑगमज्ञानको बड़ा भारी वलंचन मानना चाहिये। ए बिना इसके विपरका ज्ञान नहीं होगा और स्वात्मानुभव होगा जो कर्मोके नाशमें मुख्य हेतु है उत्पानिका आगे कहते हैं कि मोक्ष मार्ग पर चलनेवालों 1 IS FRE F लिये आगम ही उनकी दृष्टि है-फि आगमचक्खू सह्निाइदियधक्यूजिंग मन्त्रपूदाकिन देवाय ओहि चिक्कू सिद्धा पुर्ण सव्वदो चलूंगा कशा चः साधुरिन्द्रियभूतानकी कन्याश्वावधि चक्षु सिद्धी पुनः सर्वतश्चक्षु५४
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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