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________________ तृतीय खण्ड । [- १८३ ध्यानमें ही जमे रहूंगा वह थक जानेपर यदि अपनाद या व्यवहार मार्गको न पालेगा तो अवश्य संयमसे भृष्ट होगा व शरीर का नाश कर देगा । और जो कोई अज्ञानी शुद्धात्माकी भावनाकी इच्छा छोडकर केवल व्यवहार रूपसे मूल गुणोंके पालने में ही लगा रहेगा वह द्रव्यलिंगी रहकर भावलिंगरूप मूल संयमका घात कर डालेगा । इसलिये निश्चय व्यवहारको परस्पर मित्र भावसे ग्रहण करना चाहिये । जब व्यवहार में वर्तना पड़े तब निश्चयकी तरफ दृष्टि रक्खे और यह भावना भावे कि कब मैं शुद्धात्मा के वागमें रमण करूं और जब शुद्धात्माके बागमें क्रीड़ा करते हुए किसी शरीरकी निर्बलता के कारण असमर्थ हो जावे तबतक निश्चय तथा व्यवहारमें गमनागमन करता हुआ मूल संयम और शरीरकी रक्षा करते हुए वर्तना ही मुनि धर्म साधनकी यथार्थ विधि है। इस गाथासे यह भी भाव झलकता है कि अठाईस मूलगुणोंकी रक्षा करते हुए अनशन ऊनोदर आदि तपोंको यथाशक्ति पालन करना चाहिये। जो शक्ति कम हो तो उपवास न करे व कम करे । वृत्ति परिसंख्यानमें कोई ' बड़ी प्रतिज्ञा न धारण करें । इत्यादि, आकुलता व आर्त्तिध्यान चित्तमें न पैदा करके समताभावसे मोक्ष मार्ग साधन करना साधुका कर्तव्य है । तात्पर्य यह है कि साधुको जिस तरह बने भावोंकी शुद्धिता बढ़ानेका यत्न करना चाहिये । मूलाचारमें कहा है भावविरदो दु विरदो ण दव्वविरदस्त सुग्गर होई । विसयवणरमणलोलो धरियन्वो तेण मणहत्थी ॥ ६६५ ॥ भावार्थ- जो अंतरंग भावोंसे चैरागी है वही विरक्त है। केवल
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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