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________________ १८२] श्रीप्रवचनसारटोका । अभेद रत्नत्रय स्वरूप है, वहां निज शुद्धात्माका श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है, उसीका ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है व उसीमें लीन होना सम्यग्चारित्र है-इसीको भावलिंग कहते हैं। यह निर्विकल्प दशा है, यही वीतराग सम्यग्दर्शन तथा वीतराग चारित्र है, यही उपेक्षा संयम है, यही सर्व सन्यास है, यही एकाग्रध्यानावस्था है। इसीमें वीतरागताकी अग्नि जलकर पूर्व बांधे हुए घोर कर्मोंकी निर्जरा कर देती है, यही आत्माके बलको बढ़ाती है, यही ज्ञानका अधिक प्रकाश करती है। जो भत्तचक्रवर्तीके समान परम वीर साधु हैं वे इस अग्निको लगातार अंतर्मुहूर्त तक जलाकर उतने ही कालमें घातियाकर्मीको दग्धकर केवलज्ञानी हो जाते हैं, परन्तु जो साधु इस योग्य न हों अर्थात् शुद्धात्माकी आराधनामें बराबर उपयोग न लगा सकें ऐसे थके हुए साधु, अथवा जो छोटी वयके व बडी वयके हों वा रोगपीड़ित हों इन सर्वसाधुओंको योग्य है कि जबतक उपयोग शुद्धात्माके सन्मुख लगे वहीं जमे रहें। जब ध्यानसे चलायमान हों तब व्यवहार धर्मका शरण लेकर. जिस तरह अट्ठाईस मूलगुणोंमें कोई भंग न हो उस तरह वर्तन करें-क्षुधा शमन करनेको ईर्या समितिसे गमन करें, श्रावकके घर सन्मानपूवैक पड़गाहे जानेपर शुद्ध आहार ग्रहण करके वनमें लौट आवें, शास्त्रका पठनपाठन उपदेशादि करें, कोमल पिच्छिकासे शोधते हुए शरीर, कमंडलु, शास्त्रादि रखें उठावें, आवश्यक्ता पडनेपर शौचादि करें । यह सब व्यवहार या अपवाद मार्ग है उसको साधन करें । निश्चय और व्यवहार दोनोंकी अपेक्षा व सहायतासे वर्तना सुगमचर्या है । जो मुनि हठसे ऐसा एकांत पकडले कि मैं तो शुद्धात्म
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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