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________________ तृतीय खण्ड। [१७३ लेते हैं । वे यह इच्छा नहीं करते कि हमें अमुक ही मिलना चाहिये, ऐसा उनके रागभाव नहीं उठता है। वृत्तिपरिसंख्यान तपमें व रसपरित्याग तपमें वे तपकी वृद्धिके हेतु किसी रस या भोजनके त्यागकी प्रतिज्ञा ले लेते हैं, परन्तु उसका वर्णन किसीसे नहीं करते हैं । यदि उस प्रतिज्ञामें बाघारूप भोजन मिले तो भोजन न करके कुछ भी खेद न मानते हुए बड़े हर्पसे एकांत स्थलमें नाकर ध्यान मग्न होजाते हैं । चौथी बात यह है कि वे निमंत्रणसे कहीं भोजनको जाते नहीं, स्वयं करते कराते नहीं, न ऐसी अनुमोदना करते हैं। वे मिक्षाको किसी गलीमें जाते हैं वहां जो दातार उनको भक्ति सहित पड़गाह लेवे वहीं चले जाते हैं और जो उसने हाथोंपर रख दिया उसे ही खा लेते हैं । वे इतनी बात अवश्य देख लेते हैं कि यह भोजन उद्देशिक तो नहीं है अर्थात् मेरे निमित्तसे तो दातारने नहीं बनाया है । यदि ऐसी शंका होजावे तो वे भोजन न करें । जो दातारने अपने कुटुम्बके लिये बनाया हो उसीका भाग लेना उनका कर्तव्य है | पांचवीं बात यह है कि वे साधु दिवसमें प्रकाश होते हुए भोजनको जाते हैं। रात्रिमें व अन्धेरेमें भोजनको नहीं जाते हैं। छठी बात यह है कि किसी विशेष रसके खानेकी लोलुपता नहीं रखते । वे जिह्वाइंद्रियके खादकी इच्छाको मार चुके हैं। सातवीं बात यह है कि वे ४६ दोष, ३२ अन्तराय व १४ मलरहित शुद्ध भोजन करते हैं उसमें किसी प्रकार मांस, मद्य, मधुका दोष हो तो शंका होनेपर उस भोजनको नहीं करते-जैन साधु अशुड आहारके सर्वथा त्यागी होते हैं । वे इस बातको जानते हैं कि
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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