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________________ १७२ ] श्रीप्रवचनसारीका | उपाधि न होने देना सो निश्चयनयसे अहिंसा है तथा इसकी साघनरूप बाहरमें परजीवों के प्राणोंको कष्ट देनेसे निवृत्तिरूप रहना सो द्रव्य अहिंसा है। दोनों ही अहिंसाकी प्रतिपालना योग्य आहार में होती है और जो इसके विरुद्ध आहार हो तो वह योग्य आहार न होगा, क्योंकि उसमें द्रव्य अहिंसासे विलक्षण द्रव्यहिंसाका सद्भाव हो जायगा । भावार्थ-यद्यपि ऊपरकी गाथाओं में युक्ताहारका कथन हो चुका है तथापि यहां आचार्य अल्पज्ञानीके लिये विस्तार से समझानेको उसीका स्वरूप बताते हैं । पहली बात तो यह है कि साधुओं को दिन रातके चौबीस घण्टोंमें एक ही वार भोजन पान एक ही स्थानपर लेना चाहिये, क्योंकि शरीरको भिक्षावृत्तिसे मात्र भाड़ा देना है इससे उदासीनभावसे एक दफे ही जो भिक्षा मिल गई उतनी ही शरीर रक्षा में सहकारी होजाती है । यदि दो 1 तीन चार दफे लेवें तो उनका भोजनसे राग होजावे व शरीर में प्रमाद व निद्रा सतावे जिससे भाव हिंसा बढ़ जावे और योगाम्यास न होसके । दूसरी बात यह है कि वे साधु पूर्ण उदर भोजन नही करते हैं, इतना करते हैं कि शरीरमें विना किसी आकुलताके भोजन पच जावे । साधारण नियम यह है कि दो भाग अन्नसे एक भाग जलसे तथा एक भाग खाली रखते है, क्योंकि प्रयोजन मात्र शरीरकी रक्षाका है यदि इससे अधिक लेव तो उनका भोजन में राग वढ़ जावे तथा वे अयोग्य आहारी हो नावें । तीसरी बात यह है कि जैसा सरस नीरस गरम ठंढा सूखा तर दातार गृहस्थने देदिया उसको समताभावसे भोजन कर 1
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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