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________________ wwwmom १६८] श्रीप्रवचनसारटोका । अन्वय सहित सामान्यार्थ-(समणो) साधु (केवलदेहो) केवल मात्र शरीरधारी हैं-(देहे वि ममेत्ति रहिदपरिकम्मो) देहमें भी ममता रहित क्रिया करनेवाले हैं । इससे उन्होंने ( अप्पणो सत्ति) अपनी शक्तिको ( अणिगृह) न छिपाकर (तवसा) तपसे (त) उस शरीरको (आउत्तो) योजित किया है अर्थात तपमें अपने तनको लगा दिया है। विशेषार्थ-निन्दा, प्रशंसा आदिमें समान चित्तके धारी साधु अन्य परिग्रहको त्यागकर केवल मात्र शरीरके धारी हैं तो भी क्या वे देहमें ममता करेंगे, कभी नहीं-वे देहमें भी ममता रहित होकर देहकी क्रिया करते हैं। साधुओंकी यह भावना रहती ' है जैसा इस गाथामें है। __ " ममत्ति परिवजामि णिम्ममत्ति उवविदो । आलंवणं च मे आदा अक्सेसाई वोसरे ॥" में ममताको त्यागता हूं निर्ममत्व भावमे ठहरता हूं, मेरेको अपना आत्मा ही आलम्बन है और सर्वको मैं त्यागता हूं। शरीरसे ममता न रखते हुए वे साधु अपने आत्मवीर्यको न छिपाकर इस नाशवंत शरीरको तपसाधनमें लगा देते हैं। यहां यह कहा गया है कि जो कोई देहके सिन्गय सर्व वस्त्रादि परिग्रहका त्यागकर शरीरमें भी ममत्व नहीं रखता है तथा देहको तपमें लगाता है वही नियमसे युक्ताहार विहार करनेवाला है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने मुनिमहाराजकी निस्टहताको और भी स्पष्ट कर दिया है। वे परम वीतरागी साधु निरन्तर आत्मरसके पीनेवाले अध्यात्मवागमें ही नित्य रमण करते हैं । वे
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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