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________________ १८६] श्रीप्रवचनसारटीका । करानेवाला थोडासा कर्मबन्ध हो तो लाभ अधिक है ऐसा जानकर अपबादकी अपेक्षा सहित उत्सर्ग मार्गको स्वीकार करता है। तेसे ही पूर्व सूत्रमें कहे क्रमसे कोई अपहृत संयम शब्दसे कहने योग्य अपवाद मार्गमें प्रवर्तता है वहां वर्तन करता हुआ यदि किसी कारणले औषधि, पथ्य आदिके लेनेमें कुछ कर्मवन्ध होगा ऐसा भय करके रोगका उपाय न करके शुद्ध आत्माकी भावनाको नहीं करता है तो उसके महान कर्मका बंध होता है अथवा व्याधिके उपायमें प्रवर्तता हुआ भी हरीतकी अर्थात हड़के वहाने गुड़ खानेके समान इंद्रियोंके सुखमें लम्पटी होकर संयमकी विराधना करता है तो भी महान कर्मबन्ध होता है । इसलिये साधु उत्सर्गकी अपेक्षा न करके अपवाद मार्गको त्याग करके शुद्धात्माकी भावनारूप व शुभोपयोगरूप संयमकी विराधना न करता हुआ औषधि पथ्य आदिके निमित्त अल्प कर्मबन्ध होते हुए भी बहुत गुणोंसे पूर्ण उत्सर्गकी अपेक्षा सहित अपवादको स्वीकार करता है यह अभिप्राय है। भावार्थ-इस गाथाका यह अर्थ है कि साधुको एकांतसे हठयाहो न होना चाहिये । उत्सर्ग मार्ग अर्थात् निश्चयमार्ग तथा अपवादमार्ग अर्थात् व्यवहारमार्ग इन दोनोंसे यथावसर काम लेना चाहिये । नवतक शुद्धोपयोगमें ठहरा जावे तबतक तो उत्सर्ग मार्गमें . ही लीन रहे परन्तु जब उसमें उपयोग न लग सके तो उसको व्यवहारचारित्रका सहारा लेकर जिसमें फिर शीघही शुद्धोपयोगमें चढ़ना हो जावे ऐसी भावना करके कुछ शरीरकी थकनको मेटेउसका वैय्यावृत्य करे, भोजनपानके निमित्त नगरमें जावे, शुद्ध
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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