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________________ १६२] श्रीप्रवचनसारटोका । देहके मुनि-योग्य संयम देवादि देहधारी नहीं पाल सक्ते हैं । इस नर देहकी स्थिरता साधुपदमें विना भोजन दिये नहीं रह सक्ती है इसलिये साधु भोजन करते हैं अथवा भोजन के निमित्त विहार करते हैं । वे जिह्वाके स्वादके लिये व शरीरको बलिष्ट बनानेके लिये भोजन नहीं करते हैं और वे इसी लिये भोजनमें रागी नहीं हैं । विराग भावसे जो शुद्ध भोजन गृहस्थ श्रावकने अपने कुटुम्बके लिये बनाया होता है उसीमेंसे जो मिल जावे उस लेते हैं, नीरस सरसका विकल्प नहीं करते हैं। जैसे गाय चारा चरती हुई कुछ भी और विकल्प नहीं करती वैसे साधु भोजन करते हैं। जैसे गट्टेको भरना जरूरी है वैसे साधु शरीररूपी गड्ढेको खाली होनेपर भर लेते हैं। ऐसे साधु परम वैरागी होते हैं, 'क्रोधादि कषायके त्यागी होते हैं, न उनको इस लोक में नामकी चाह, पूजाको चाह व किसी लाभकी चाह होती है. न परलोकमें वे स्वर्गादिके सुख चाहते हैं, क्योंकि वे सम्यग्दृष्टी साधु कांक्षा व निदानके दोषसे रहित हैं। उनको एक आत्मानंदकी ही भावना है उसीके वे रसिक हैं । इसीलिये मुनिपद द्वारा शुद्धात्मानुभव करते रहकर सुख शांतिका भोग करते हैं तथा परलोक्में बंध रहित अवस्थाके ही यत्नमें लीन रहते हैं । उनका आहार विहार बहुत योग्य होता है वे आहारमें भी उनोढर करते हैं जिससे आलस्य व निद्राको जीत सकें । कहा है: अक्लोमलणमेतं भुजति मुणी पाणधारणणिमितं । पाण धम्मणिमित्तं धम्मपि चरति मोक्ख ॥ ८१५ ॥ सोदलासोदलं वा सुकं लुक्खं सुणिद्ध सुद्धं वा । लोणिदमलोणिदं वा भुजति मुणी अणासाः ॥ ८१४ ॥
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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