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________________ M तृतीय खण्ड। . [ १६१ इस लोकमें प्रसिद्धि, पूजा व लाभरूप अभिलाषाओंसे शून्य है, परलोकमें तपश्चरण करनेसे देवपद व उसके साथ स्त्री, देव परिवार व भोग प्राप्त होते हैं ऐसी इच्छासे रहित है, तथा कषाय रहित आत्मस्वरूपके अनुभवकी थिरताके वलसे कषायरहित वीतरागी है वही योग्य आहार व विहारको करता है। यहां यह भाव' है कि जो साधु इसलोक व परलोककी इच्छा छोड़कर व क्रोध लोभादिके वश न होकर इस शरीरको प्रदीपसमान जानता है तथा इस शरीर दीपकके लिये आवश्यक तैलरूप ग्रासमात्रको देता है जिससे शरीररूपी दीपक बुझ न जावे | तथा जैसे दीपकसे घटपट आदि पदार्थोंको देखते हैं वैसे इस शरीररूपी दीपककी सहायतासे वह साधु अपने परमात्म पदार्थको ही देखता या अनुभव करता है वही साधु योग्य आहार विहार करनेवाला होता है परन्तु जो शरीरको . पुष्ट करनेके निमित्त भोजन करता है वह युक्ताहार विहारी नहीं है। भावार्थ-ग्रहां पर आचार्यने जो चार उपकरण अपवाद मार्गमें बताए थे उनमेसे प्रथम उपकरण जो शरीर है उसकी रक्षाका विधान बताया है | कि साधु मात्र शरीरको भाड़ा देते हैं कि यह स्वास्थ्ययुक्त बना रहे जिससे हम इसकी सहायतासे ध्यान स्वाध्याय करके मोक्षमार्गका साधन कर सकें। जैसे किसीको रात्रिके समयशास्त्र पढ़ना है सहायताके लिये दीपक जलाता है। दीपक जलनेके लिये दीपकमें तेल पहुंचाता रहता है, क्योंकि दीपक तेल विना जल नहीं सका है और अपने शास्त्र-पढ़नेके कार्यको साधन करता है । तैसे साधु महात्मा मोक्षकी सिद्धिके लिये संयम पालते हैं। संयमका साधक नर देह है। विना नर .११
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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