SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६०] श्रीप्रवचनसारटोका । विशेषार्थ-क्योंकि स्वभावसे उनका वर्तन प्रमादमयी होता है इसलिये नाममालामें उनको प्रमदा संज्ञा कही गई है। प्रमदा होने हीसे उनमें प्रमाद रहित परमात्मतत्वकी भावनाके नाश करनेवाले प्रमादकी बहुलता कही गई है। ___ भावार्थ-वास्तवमें निग्रंथ लिंग अप्रमादरूप है । स्त्रियों के इस नातिके चारित्र मोहनीयका उदय है कि जिससे उनके भावोंसे प्रमाद दूर नहीं होता है । यही कारण है कि कोषमें स्त्रियोंको प्रमदा संज्ञा दी है। प्रमादकी बहुलता होने हीसे वे उस निर्विकल्प समाधिमें चित्त नहीं स्थिर कर सक्ती हैं जिसकी मुनिपदमें मोक्षसिद्धिके लिये परम आवश्यक्ता है। अप्रमत्त विरत गुणस्थान देशविरत पांचवेसे एकदम होता है। प्रमत्तविरत छठे गुणस्थानमें तो अप्रमत्तसे पलटकर आता है-चढ़ते हुए एकदम 'छठा गुणस्थान नहीं होता है । जब साधु वस्त्राभूषण त्यागकर नग्न हो लोचकर ध्यानस्थ होते हैं तब निर्विकल्स भाव जो बिलकुल प्रमादरहित है उस भावमें अर्थात् अप्रमत्त मुणस्थानमें पहुंच जाते हैं । सो ऐसा होना स्त्रियोंके लिये शक्य नहीं है ।। ३२ ॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि स्त्रियोंके मोह आदि भावोंकी अधिकता हैसंति धुबै पमदाणं मोहपदोसा भय दुगच्छा य । चित्ते चित्ता माया तम्हा तार्सि ण णिव्वाणं ॥ ३३ ॥ सन्ति ध्रुवं प्रमदानां मोहमद्वेषमयदुगंछाश्च । चित्ते चित्रा माया तस्मात्तासां न निर्वाणं ॥ ३३ ॥
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy