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________________ 40. Anan १६] . श्राप्रवचनसारटीका । अन्वय सहित सामान्यार्थ-(जदि) यदि (इह सुत्ते) किसी विशेष सूत्रमें (चेलखंडं गेहदि) साधु वस्त्रके खडको स्वीकार करता है (व भायणं अस्थित्ति भणिदम्) या उसके भिक्षाका पात्र होता है ऐसा कहा गया है तो (सो) वह पुरुप निरालम्न परमात्माके तत्वकी भावनासे शून्य होता हुआ (कह) किस तरह (त्तालंबो) बाहरी द्रव्यके अलम्बन रहित (हवदि) होसक्ता है ? अर्थात नहीं होसक्ता (वा अणारम्भो) अथवा किस तरह क्रिया रहित व आरम्भ रहित निन आत्मतत्त्वकी भावनासे रहित होकर आरम्भमे शून्य होसक्ता है ? अर्थात आरम्भ रहित न होकर आरम्भ सहित ही होता है। यदि वह (वत्थखण्ड) वस्त्रके टुकड़ेको, (दुदियभायणं) दूधके लिये पात्रको (अण्ण च गेण्हदि) तथा अन्य किसी कम्बल या मुलायम शय्या आदिको गृहण करता है तो उसके (णियदं) निश्चयसे (पाणारम्भो विजदि) अपने शुद्ध चेतन्य लक्षण प्राणोंका विनाश रूप अथवा प्राणियोंका वध रूप प्राणारम्भ होता है तथा (तस्स चित्तम्मि विक्खेवो) उस क्षोम रहित चित्तरूप परम योगसे रहित परिअहवान पुरुषके चित्तमें विक्षेप होता है या आकुस्ता होती है। वह यती (पत्थं च चलेखण्ड) भाजनको या वस्त्रचण्डको (गेण्हई) अपने शुद्धात्माके ग्रहणसे शून्य होकर ग्रहण करता है, (विधुणइ) कर्म धूलको झाड़ना छोड़कर उसकी बाहरी धूलको झाड़ता है, (धोवइ) निज परमात्मतत्वमें मल उत्पन्न करनेवाले रागादि मलको छोड़कर उनके बाहरी मैलको धोता है (जयं दं तु आदने खित्ता सोसइ) और निर्विकल्प ध्यानरूपी धूपसे संसारनदीको नही सुखाता हुभा यत्नवान होकर उसे धूपमें डालकर सुखाता है (परदो य विभेदि)
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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