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________________ तृतीय खण्ड । [१२५ मानते हैं वे साधु किस तरह संयमकी घात करनेवाली किसी परिग्रहको ग्रहण कर सक्ते हैं। श्री कुलभद्र आचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैंरागादिवर्द्धनं सङ्ग परित्यज्य दृढव्रताः। धीरा निर्मलचेतस्काः तपस्यन्ति महाधियः { २२३ । संसारोद्विग्नचित्तानां निःश्रेयससुखैषिणाम् । सर्वसंगनिवृत्तानां धन्यं तेषां हि जीवितम् ॥ २२४ ॥ भावार्थ-महा बुद्धिवान, व्रती, धीर और निर्मल चित्तधारी साधु रागद्वेषादिको बढ़ानेवाली परिग्रहको त्यागकर तपस्या करते हैं। जिनका चित्त समारमें वैरागो है, जो मोक्षके आनंदके पिपासु हैं जो सर्व परिग्रहसे अलग हैं उनका जीवन धन्य है॥२२ ___उत्थानिका-आगे इसही परिग्रहके त्यागको दृढ़ करते हैं।' गेव्हर्दि व चेलखंड भायणमस्थित्ति भगिदमिह मुत्ते। जदि सो चत्तालंबो हवदि कह वा अणारंभो ॥ २३ ॥ वस्थक्खंड दुधियभायणगण्यं च गेण्हदि णियदं । विजदि पाणारंभो विक्खेवो तस्स चित्तम्मि ॥ २४ ॥ गेहई विधुणइ धोवइ सोसइ जयं तु आदवे खिता। पत्थं च चेलखंड विभेदि परदो य पालयदि ॥ २५॥ गृह्णाति वा चेलखंड भाजनमस्तीति भणितमिह सूत्रे। यदि सो त्यतालम्वो भवति कथं वा अनारंभः ॥ २३ वस्त्रखंडं दुग्धिकामाजनमन्यच्च गृहणाति नियतं । विद्यते प्राणारंभो विक्षेपो तस्य चित्ते ॥ २४ गृहणाति विधुनोति धौति शोषयति यदं तु आतपे क्षिप्त्वा । पात्र च चेलखंड विमेति परतश्च पालयति ॥ २५
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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