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________________ wwwmarA श्रीमवचनसार भाषाटीका। . . [५१ नामा गुण है। क्योंकि सभी संसारी जीवोंके अंतरंग सुख पानकी इच्छा रहती है । सब ही निराकुल तथा सुखी होना चाहते हैं इन्द्रियों के विषय भोगके कल्पना मात्र सुखसे यह नीव न कभीनिराकुल होता है न सुखी होता है। सच्चा सुख आत्माका स्वभाव है. वही सच्चा सुख कर्मोके आवरण हटनेसे प्रगट होजाता है । उसी सुखका स्वभाव यहां कहते हैं । वह मुख इस प्रकारका है कि बड़े र इन्द्र चक्रवर्ती भी निस सुखको इन्दिय भोगोंको करते करते नहीं पासक्त हैं तथा जिस जातिका आल्हाद इस आत्मीक मुखमें है वैसा आनन्द इन्द्रिय भोगोंसे नहीं प्राप्त होसक्ता है । इंद्रिय सुख आकुलता रूप है, अतीन्द्रिय सुख निराकुल है इसीसे अतिशय रूप है । इन्द्रिय सुख पराधीन है क्योंकि अपने शरीर व अन्य चेतन अचेतन वस्तुओं के अनुकूल परिणमनके आधीन है, जब कि मात्मीक सुख स्वाधीन है जो कि आत्माका स्वभाव होनेसे आत्मा ही के द्वारा प्रगट होता है । इन्द्रिय सुख इन्दिय हारा योग्य पदाथोंके विषयको ग्रहण करनेसे अर्थात माननेसे होता है जब कि ' मात्मीक सुखमें विषयोंके ग्रहण या भोगका कोई विकल्प ही नहीं होता है। भात्मीक सुखके समान इस लोकमें कोई और सुख नहीं है जिससे इस सुखका मिलान किया जाय इससे यह मात्मीक मुख उपमा रहित है, इंद्रिय सुख अंत सहित विनाशीक व अल्प होता है जब कि आत्मिक सुख भंज हित अविनाशी और माममाण है, इद्रिय सुख असाताका उदय होनेसे व साताके क्षयसे छूट जाता है निरन्तर नहीं रहता जब कि आत्मीक सुख निरन्ता बना रहता है । जब पूर्गपने प्रगट होमाता है तब अनंतकालतक
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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