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________________ www ५०] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका! : सामान्यार्थ अति आश्चर्यकारी, मात्मासे ही उत्पन्न, . पांच इन्द्रियके विषयोंसे शून्य, उपमा रहिन, अनंत और निरावाध । सुख शुद्धोपपोममें प्रसिद्ध अर्थात शुद्धोपयोगी अरहंत और सिद्धोंके होता है। अन्वय सहित विशेषार्थ-( मुद्धरओगप्पसिद्धाणं) शुद्धोपयोगमें प्रसिद्धोंको अर्थात् वीतराग परम सामायिक शब्दसे कहने योग्य शुद्धोपयोगके द्वारा जो परहंत और सिद्ध होगए हैं उन परमात्माओंको (भइसय) अतिशयरूप अर्थात अनादि कालके संसारमें चले आए हुए इन्द्रादिके सुखोंसे भी अपूर्व अद्भुत परम आल्हाद रूप होनेसे भाश्चर्यकारी, (आदसमुत्थं) आत्मासे उत्पन्न अर्थात् रागद्वेषादि विकल्प रहित अपने शुद्धात्मा अनुमवसे पैदा होनेवाला, ( विसयातीदं ) विषयोंसे शून्य अर्थात् इन्द्रिय निपय रहित परमात्म तत्वके विरोधी पांच इन्द्रियोंके विषयोंसे रहित, ( अणोवमं ) उपमा रहित अर्थात् दृष्टांत रहित परमानन्दमई एक लक्षणको रखनेवासा, (अori) अनंत अर्थात् अनन्त भविष्यकालमें विनाश रहित अथवा अप्रमाण (च) तथा (अव्वुछिण) विवाहित अर्थात् असाताका उदय न होनसे निरन्तर रहनेवाला ( सुई) आनन्द रहता है। यही गुख पादेश है इसीको निरन्तर भावना करनी योग्य है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने साम्यभाव यारद्धोपयोगका फल यह बताया है कि दोपयोगफे प्रतापसे संसारी आत्माके गुणोंके रोकनेवाले घातिया कर्म छूट जाते हैं। तब अलाके मच्छन्न गुण विकसित हो जाते हैं। उन सब गुणों। मुख्य सुव
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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