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________________ ४६ ] श्रीचनसार भाषाटीका । यतिस्थाद वो धार भारफर महान संकर उठाता है । मनुष्य गति दन्द्रो, दुःखी, रोगी मनुष्य हो बड़े कटले ena पूरी करता है | forयादृष्टी अज्ञानी मीथ कभी जप, तप, व्रत उपवान, व्यान, परोपकार आदि भी करता है जरा समय उसकी कभी शुभ तथा आगमके अनुसार ठीच प्रयत् हो है. परन्तु संरंग में मिथ्या अभिप्राय रहनेसे उसके उपयोगोपयोग वहीं कहते हैं । यद्यपि यह मिथ्यादृष्टो इस मंट कपासे अधाति में पुण्य प्रकृतियों को शुगोपयोग को तरह शुभोपयोगी से भी अधिक मंदरुपाय होने शुज पनि पुण्य प्रकृतिको die लेता है तो भी भ्रमणका पात्र ही रहता है इससे उस मिध्यात्वी द्रव्यलिंगी सुनको भी योगी कहते हैं। एक ग्रहस्थ सम्यग्दृष्टी व्रतको पालता हुआ जब शुभयोगसे पुण्य बांध केवल १६ सोल्ह स्वर्ग तक ही जाता है तब मिथ्यादृष्टी द्रव्यलिंगी सुनि बाहर उपयोग में प्रगट के प्रतापसे नौमें जीवक तक चला जाता है। तौ भी वह श्रावक नोक्षी होने से शुभोपयोगी है, तथा द्रव्यलिंगी सुनि ससारमान होने से अशुभोपयोगी है। यहां पर कोई शंका करे कि सम्यग्टी जब ग्रहारम्भमें वर्तता है अथवा क्षत्री या वैश्य फर्मो युद्धादिप्ता या कृषि वाणिज्य करता है या विषयभोगोंमें वर्तता है तब भी क्या उस सम्यग्दष्टिके उपयोगको शुमोपयोग करेंगे ? जिस अपेक्षा यहां अशुभोफ्योगकी व्याख्या की हैं, वह अशुमोयोगसम्यष्टके कदापि नहीं होता है। सम्यग्दृष्टीका प्रहारम्भ भी मंशा परम्परा निमित्तमूत है। अभिप्राय में सम्मटी cr
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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