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________________ श्रीवचनसार थापाटीका । [ 8? है | आचार्य महाराज अपनी ९वीं गाथामें कही हुई बातकी ही पुष्टि कर रहे हैं कि साम्यभावसे ही आत्मा मुक्त होता है इसी साम्यभावको वीतराग चारित्र चारित्रकी अपेक्षा या कषायोंके शमन या क्षयी अपेक्षा तथा शुद्धोपयोग निर्विकार क्षोभ रहित ज्ञानोपयोगकी अपेक्षा इसी भावको निश्चय रत्नत्रयमई धर्म व अहिंसाध या वस्तु स्वभाव रूप धर्म या दश धर्मका एकत्व कहते हैं - यही राग द्वेष रहित निर्विकल्प समाधि भाव कहलाता है । इसीको धर्म- . ध्यान या शुक्लध्यानकी अग्नि कहते हैं । इसीको स्वात्मानुभूति व स्वस्वरूप रमण व स्वरूपाचरण चारित्र भी कहते हैं । इसी भाव में यह शक्ति है कि जैसे कपासके समूहको जला देती है वैसे यह व्योमकी अग्नि पूर्वमें बांधे हुए कर्मोकी निर्जरा कर देती है तथा - नवीन कर्मी संवर करती है। जिस भावसे नए कर्म न मानें और पुराने बंधे समय समय असंख्यात गुणे अधिक झड़े उसी भावसे अवश्य आत्माकी शुद्धि होसको है। जिस कुंडमें नया पानी आना चंद होजावे और पुराना पानी अधिक जोरसे वह जाय वह कुंड rasu कुछ कालमें बिलकुल नल रहित हो जावेगा । आत्माके बंधन काय भावके निमित्तसे होता है । इसी कायको रागद्वेष कहते हैं । तच रागद्वेषके विरोधी भाव अर्थात् वीतराम भावसे अवश्य कर्म झड़ेंगे। वास्तव में मैमा साधन होगा वैसा साध्य सधेगा | जैसी भावना तैसा फल | इसलिये शुद्ध आत्मानुभवसे अवश्य शुद्ध आत्माका लाभ होता है । यह शुद्धात्मानुभव यहां भी aafar आनन्दका स्वाद प्रदान करता है तथा भविष्य में भी सदा के लिये आनन्दमयी बना देता है। यही मुक्तिका साक्षात
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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