SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ anmour immwwwmarne MAMwinik ४०] श्रीमनचनसार भापाटीका । (परिणदप्वा) परिणमन स्वरूप होता हुमा (अपा ) यह आत्मा ( जदि ) यदि (सुद्धसंपयोगजुदो) शुद्धोपयोग नामके शुद्ध परिणाममें परिणत होता है ( णियाणसुहं ) सब निर्वाणके सुखको ( पावदि ) प्राप्त करता है । (व ) और यदि ( सुहोवयुत्तो) शुभोपयोगमें परिणमन करता है तो (सग्गसुह) स्वर्गके सुखको पाता है । यहां विस्तार यह है कि यहां धर्म शब्दसे अहिंसा लक्षण धर्म, मुनि श्रावकका धर्म, उत्तम क्षमादि दशलक्षण धर्म अथवा रत्नत्रय स्वरूप धर्म वा मोह क्षोमसे रटित मात्माका परिणाम या शुद्ध वस्तुका स्वभाव गृहण किया जाता है । वहीं धर्म अन्य पर्यायसे अर्थात् चारित्र भावकी अपेक्षा चारित्र कहा जाता है । यह सिद्धांतका बचन है कि " चारितं खलु धम्मो " (देखो गाथा ७ वीं ) वही चारित्र अपहृत संबम तथा उपेक्षा संयमछे भेदसे वा सराग वीतरागके मेदसे दा शुनोपयोग, शुद्धोपयोगके भेदसे दो प्रकारका है । इनमेंसे शुद्ध संप्रयोग शब्दसे कहने योग्य जो शुद्धोपयोग रूप वीतराग चारित्र उमसे निर्वाण प्राप्त होता है । जब विरूप रहित समाधिमई शुद्धोपयोगकी शक्ति नहीं होती है तब यह जात्मा शुभोपयोग रूप सराग चारित्र भावसे परिणमन करता है तब अपूर्व और अनाकुन्ता लक्षण धारी निश्चय सुखसे विपरीत माकुल्ताको उत्पन्न करनेवाला स्वर्ग सुख पाता है । पीछे परम समाधिके योग्य सामग्रोके होनेपर मोसको प्राप्त करता है ऐसा सूत्रका भाव है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने शुद्धोपयोगका फल कर्म बंधनसे छूटकर मुक्त होना अर्थात शुद्ध स्वरूप हो जाना बताया
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy