SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमवचनसार भाषाटीका ।. [:१९, पूजक नहीं है मैं ही पूज्य हूं मैं ही पुजारी हूं ऐसा एकत्वभाव थिरता रूप होना उसे अद्वैत नमस्कार कहते हैं। पूर्व गाथामोंमें ' कहे गए पांच परमेष्ठियों को इस लक्षण रूप देत अथवा अद्वैत नमस्कार करके मठ चैत्यालय आदि व्यवहार आश्रमसे चित्रक्षण भावाश्रम रूप जो मुख्य आश्रम है उसको प्राप्त होकर मैं वीतराग चारित्रको आश्रय करता हूं । अर्थात् रागादिकों से मिन्न यह अपने आत्मासे उत्पन्न सुख स्वभावका रखनेवाला परमात्मा है सो ही निश्वयसे मैं हूं ऐसा भेद ज्ञान स्वभाव सब तरह से ग्रहण करने योग्य है दर्शन इस तरह दर्शन ज्ञान सभावमई भावाश्रम है। इस भावाश्रम पूर्वक आचरण में माता हुआ जो पुण्य बंधका कारण सरागचारित्र है उसे जानकर त्याग करके निश्व शुद्धात्मा के अनुभव स्वरूप वीतराग चारित्र भावको में ग्रहण करता हूं । " भावार्थ - इस गाथा में आचार्यने स्वानुभव की ओर लक्ष्य कराया है । यह भाव झलकाया है कि पांच परमेष्ठीको नमस्कार करने का प्रयोजन यह है कि जिस निल दर्शन ज्ञानमई आत्म स्वभावरूपी निश्चय आश्रय स्थानमें पंचपरमेष्ठी मौजूर हैं उसी निजात्म स्वभावमईं अथवा सम्यक्तपूर्वक भेदज्ञानमई भाव आश्रमको मैं प्राप्त होता हूं। पहले व्यवहारमें जो मठ चैत्रालय आदिको are माना था उस विकलनको त्याग करता हूं । ऐस निज आश्रममें जाकर मैं पुण्य बंधके कारण शुभोपयोग रूप व्यवहार चारित्रके विकल्पको त्यागकर अपने शुद्ध आत्मस्वभाव के अनुभव रूप वीतराग चारित्रको अथवा परम शांत भाव को धारण करता हूं.. तथा वही परमात्मऐसी रुचिरूपी सभ्य
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy