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________________ ३५० ] atraenner भाषाटीका 1 कते हैं जैसे दूधपानी, सोनाचांदी, ताम्वापीतल व वस्त्र ल मिले हुए भी भेदविज्ञान से अलग अलग जाननेमें जाते हैं वैसे ही चेतन और अचेतन मिले हुए होनेपर भी भिन्न २ जानने में खाते हैं । भेदज्ञानके प्रतापसे निन आत्मा द्रव्यको अलग करके अनुभव किया जाता है तव ही मोहका नाश होता है। इस मैद विज्ञानकी महिमा स्वामी अमृतचंद्रजीने समयसारकलशमें इस कांति दी है सम्पद्यते संवर एप साक्षाच्छुद्धात्मतत्त्वस्य किलोपलम्भात् । सभेदविज्ञानत एव तस्यादभेदाविज्ञानमतीव भाव्यम् ॥ ६ ॥ मार्थ- शुद्धात्मतत्त्व लाभसे यह संवर होता है सो लाभ भेद विज्ञानके द्वारा ही होता है इसलिये भेद विज्ञानको अच्छी तरह भावना चाहिये । श्री नागसेन मुनिने भी तत्त्वानुशासनमें कहा है: कर्मभ्यः समस्तेभ्यो भावभ्यो भिन्नव । ज्ञ स्वभावगुदासीनं पश्येदात्मानमात्मना ।। १६४ || भावार्थ - ध्याता सपने आत्माको अपने आत्मा ही के द्वारा सर्व कर्म ननित भावोंसे भिन्न ज्ञान स्वभाव तथा वीतराग स्वरूप सदा अनुभव करे ॥ ९६ ॥ उत्थानका -आगे पूर्व सुत्रमें जिस स्व परके भेद विज्ञानकी बात कही है वह भेद विज्ञानके जिन भागमके द्वारा सिद्ध होसता है ऐसा कहते हैं:
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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