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________________ ३०४] - श्रीभवचनसार भापारीका। • सामान्यार्थ-पापके पारंमको छोड़कर वा शुभ चारित्रमें वर्तन करता हुआ यदि कोई मोह मादि भावोंको नहीं छोड़ता है तो वह शुद्ध आत्माको नहीं पाता है। ____ अन्वय सहित विशेषार्थ:-( पावारंमं चत्ता) पहले गृहमें बास करना मादि पापके आरंभको छोड़कर (वा सुम्मि चरियम्मि समुद्विदो ) तथा शुभ चारित्रमें भलेप्रकार आचरण करता हुमा (जदि मोहादी ण जहदि ) यदि कोई मोह, रागद्वेष भावोंगे नहीं त्यागता है (सो अप्पगं सुद्धं ण लहदि) सो शुद्ध आत्माफो नहीं पाता है। इसका विस्तार यह है कि कोई भी मोक्षका अर्थी पुरुष परम उपेक्षा या वैराग्यके लक्षणको रखनेवाले परम सामायिक करनेकी पूर्वमें प्रतिज्ञा करके पीछे विषयों के सुखके साधक को शुभोपयोगकी परिणतिये हैं उनसे परिणमन करके अंतरंगमें मोही होकर यदि निर्विकल्प समाधि लक्षणमई पूर्वमें कहे हुए सामायिक चारित्रका प्रभाव होते हुए मोहरहित शुद्ध मात्मतत्वके विरोधी मोह भादिकोंको नहीं छोड़ता है तो वह जिन या सिद्धके समान अपने आत्मस्वरूपको नहीं पाता है। भावार्थ-यहाँ आचार्थने यह बताया है कि परम सामायिक भाव ही आत्माकी शुद्धिका कारण है। जो कोई घरसे उदास होकर मुनिकी दीक्षा धारण करले और सब गृह सम्वन्धी पापके व्यापारोंको छोड़दे तथा साधुके पालने योग्य २८ मूलगु. णोंलो भली भांति पालन करे अर्थात् व्यवहार चारित्रमें वर्तन करने लग जावे परन्तु अपने अंतरंगसे संसार सन्बन्धी मोहको • व विषयोंकी इच्छाको नहीं त्यागे तो वह शुद्ध उपयोगमई
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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