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________________ mmmmmmunita अभिवचनसार भाषाटीका। [३०३ अग्निसे उन सर्व कर्मोको ही भिन्न कर देता है जो संसारके दुःखोंके बीज हैं। तात्पर्य यह है कि संसारकी पराधीनतासे मुक्त होकर स्वाधीन होने के लिये यही उपाय श्रेष्ठ है कि निज शुद्ध मात्मामें ही शृद्धान, ज्ञान तथा चा प्राप्त की जावे । लोहर्षि- . डसे रहित अग्नि जैसे स्वाधीनतासे भलती हुई काष्ठको जला देवी है वैसे आत्माका शुद्ध उपयोग रागद्वेषसे रहित होता हुआ भाठकर्मके काठको जला देता है और निजानंदके समुद्र में मग्न होकर निज स्वाभाविक स्वाधीनताको प्राप्त कर लेता है । अतएक शुभ अशुभसे रागद्वेष छोड़ दोनोंको ही समान जानकर एक शुद्धोपयोगमई साम्यभावमें ही रमणता करनी योग्य है ॥८२|| इस तरह संक्षेप करते हुए तीसरे स्थझमें दो गाथाएं पूर्ण हुई। ऊपर लिखित प्रम ण शुभ तथा अशुभफी मूढ़ताको दूर कर के लिये दश गाथाओं तक तीन स्थलोंके समुदायसे पहली ज्ञानकंठिका पूर्ण हुई। अस्थानिका-भागे पूर्व सुत्रमें यह कह चुके हैं कि शुभ तथा पशुभ उश्योगसे रहित शुद्ध उपयोगसे मोदा होती है। पत्र यहां दूसरी ज्ञानकरिकाके व्याख्यानके प्रारंभमें शुद्धोपयोगके अभावमें यह भारमा शुद्ध आत्मीक स्वभावको नहीं प्राप्त करता है ऐसा कहते हुए उसही पहले प्रयोजनको व्यतिरेकपनेसे दृढ़ करते हैंचन्ता पाचारंभ सहिदो या सुहम्मि परियम्मि । ण जहदि कादि मोहादी, ण लहदि सो अप्पगं सुई।। त्यक्त्वा पापारंमं समुत्यितो वा शुभे चरिने । न जचि यदि मोहादीन्न लभते स आत्मक शुद्धं ॥ ८३ ॥
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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