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________________ २९४ श्रीभवचनसार भापाटीका । अवस्था संसारी प्राणियोंकी है कि वे विषयकी चाहमें जलते हुए मर जाते हैं । इसलिये पुण्य कर्मको दुःखका कारण जानकर उससे विराग भनना चाहिये ॥ ७९ ॥ उत्थानिका-मागे फिर भी पुण्यसे उत्पन्न जो इंद्रियमुख होता है उसको बहुत प्रकारसे दुःखरूप प्रकाश करते हैंसपरं बाधासहिद विच्छिपण पंधकारणं विसम। . जं इंदिएहिं लई त सोक्खं दुक्खमेव तथा ॥८॥ सपरं बाधासहित विच्छिन्नं बन्धकारणं विपमम् । ', यदिन्द्रियैर्लब्धं तत्सौख्यं दुःखमेव तथा ॥ ८० ॥ सामान्यार्थ-जो इंद्रियों के द्वारा मुख प्राप्त होता है वह पराधीन है, बाघा सहित है, नाश होनेवाला है, कर्मबंधका मौन है, आकुलता रूप है इसलिये यह सुख दुःख रूप ही है। . अन्वय सहित विशेषार्थ:-(न) नो संसारीक सुख (इंदिएहि लई) पांचों इंद्रियों के द्वारा प्राप्त होता है (तं सोक्त) वह सुख (सपरं) परद्रव्यकी अपेक्षासे होता है इसलिये पराधीन है, जब कि पारमार्थिक सुख परद्रव्यकी अपेक्षान रखने से मात्माके माधीन स्वाधीन है। इद्रियसुख (वाधासहिद) तीव्र क्षुधा तृषा मादि अनेक रोगोंका सहकारी है, जबकि आत्मीकसुख सर्व बाधाओंसे रहित होनेसे अव्यावाध है । इंद्रिय सुख (विच्छिण्णं) साताका विरोधी मो असाता वेदनीयकर्म उसके उदय सहित होनेसे नाशवंत तथा अन्तर सहित होनेवाला है, जब कि अतीन्द्रिय सुखं मसाताके उदयके न होनेसे निरन्तर
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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