SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीप्रवचनसार भापाटीका । [ २९३ दुःखी होता है, यदि कदाचित् मिलजाते हैं तो उनको भी भोगकर अधिक तृष्णाको बढ़ा लेता है । इस तरह यह संसारी जीव पिछले प्राप्त पदार्थोंकी रक्षा व नवीन विषयोंके संग्रह में रातदिन लगा रहता है। ऐसा ही उद्यम करते करते अपना जीवन एक दिन समाप्त कर देता है परंतु विषयों की दाहको कम नहीं करता हुआ उलटा बढ़ाता हुआ उसकी दाहसे जलता रहता है। यदि इष्ट पदार्थोंका सम्बन्ध छूट जाता है तो उसके वियोग में क्लेशित होता है । चीटियोंके भीतर तृष्णाका दृष्टांत अच्छी तरह दिखता है । वे रात दिन अनाजका बहुत बड़ा समूह एकत्र कर लेती हैं और इसी लोभके प्रकट कार्य में अपना जन्म शेष करदेती हैं। मिथ्यादृष्टी संसारी जीव विषयभोगको ही सुखका कारण, श्रद्धान करते व जानते हुए इस अज्ञान जनित मोहसे रातदिन व्याकुल रहते हुए जैसे एक जन्मकी यात्राको बिताते हैं वैसे अनन्त जन्मोंकी यात्राको समाप्त कर देते हैं । अभिप्राय यह है कि पुण्य कर्मोंक उदयसे भी सुख शांति प्राप्त नहीं होती है किन्तु वे भी संसार के दुःखोंके कारण पढ़ जाते हैं । ऐसा जान पुण्यके उदयको व उसके कारण शुभोदयोगको कभी भो उपादेय नहीं मानना चाहिये । एक आत्मीक आनन्दको ही हितकारी जानकर उसीके लिये नित्य साम्यभावकी भावना करनी योग्य है । टीकाकारने नो नक जंतुका दृष्टांत दिया है वह बहुत 1 उचित है । कारण वे खराब खुनकी इतनी प्यासी होती हैं कि जितना वे इस खुनको पीती हैं उतनी ही अधिक तृष्णाको बढ़ा लेती हैं और फिर २ उसीको पीती चली जाती हैं यहां तक कि खून विकार अपना असर करता है और वे मर जाती हैं । यही
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy