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________________ wwwwwww श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [२८३ स्वाद मलीन तथा संक्लेशरूप है । सुखमें संक्लेश कम जब कि दुःखमें संक्लेश अधिक है । ये सुख तथा दुःख क्षण क्षणमें बदल जाते हैं व एक दुसरेके कारण होनाते हैं। एक स्त्री इस क्षण अनुकूल वर्तनसे सुखरूप वही अन्य क्षण प्रतिकूल वर्तनसे दुःख रूप भासती है। अर्थात् उपयोग जब रागका अनुभव करता है तब सुख, मब द्वेषका अनुभव करता है तब दुःख भासता है। जब दोनोंमें कषायका ही भोग है तब यह सुख तथा दुःख एक रूप ही हुए-आत्माके स्वाभाविक वीतराग मतीदिय आनन्दसे दोनों ही विपरीत हैं । जब ये सुख व दुःख समान हैं तब जिस पुण्यके उदयसे सुख व नित पापके उदयसे दुःख होता है वे पुण्य पाप भी समान हैं । जब पुण्य व पाप समान हैं तब जिस भावसे पुण्य बंध होता है वह शुभोपयोग तथा जिस मावसे 'पाप बंध होता है वह मशुभोपयोग भी समान हैं-दोनों ही कषाय भावरूप हैं । पूना, दान, परोपकारादिमें रागभावको व अन्याय, अभक्ष्य, मन्यया आचरणसे द्वेषभावको शुभोपयोग, तथा विषयमोग व परके अपकार में रागभावको व धर्माचरणसे द्वेषभावको अशुभ उपयोग कहते हैं । ये शुभ व अशुभ उपयोग रागद्वेषमई हैं। ये दोनों ही आत्माके शुद्ध उपयोगसे भिन्न हैं इसलिये दोनों समान हैं । व्यवहार में मंदकषायको शुभोपयोग व तीन कपायको अशुभो. पयोग कहते हैं, निश्चयसे दोनों ही पायरूप हैं इसलिये त्यागने योग्य हैं। इसी तरह इन उपयोगोंसे नो पुण्यकर्म तथा पापकर्म बध होते हैं वे भी दोनों पुद्गलमई हैं इसलिये आत्मस्वभावसे भिन्न होनेके कारण त्यागने योग्य है। श्री समयप्तार कलशमें
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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