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________________ moM २८२] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । भावार्थ-धर्म वह है जहां अधर्म नहीं, मुख वह है जहां दुःख नहीं, ज्ञान वह है जहां अज्ञान नहीं, गति वह है जहांसे लौटना नहीं । वास्तवमें सांसारिक सुख दुःख दोनों में भपने ही रागद्वेषका भोग है। रागका भोग सुख है, द्वेषका भोग दुःख है। नब कोई प्राणी किसी भी इन्द्रियके विषयमें आशक हो दप्ती तरफ रागी हो जाता है और अन्य सब विषयोंसे छुट आता है तब ही उसको सुख भासता है। ऐसे विषयभोगके समय रति अथवा तीनों वेदोंमेंसे कोई वेद वा हास्य ऐसे पांच नोकषामिसे कोई तथा लोम या मायाका उदय रहता ही है-इनहीके उदयको राग कहते हैं । इसीका अनुभव सुख कहलाता है। दुःखके समय द्वेषका भोग है । शोक, भय, जुगुप्सा, अरति इनमें से किसीका उदय तथा मान या क्रोधके उदयको.ही द्वेष कहते हैं-इसी द्वेषका अनुभव दुःख है। जब किसी विषयकी चाह पैदा होती है तब राग है परंतु उसी समय इच्छित पदार्थका लाम न होनेसे वियोगसे शोकच हानि व भरतिसी भावोंमें रहती है यही दुःखका अनुभव है। जब वह प्राप्त होजाता है तब रति व कोमका उदय सो सुखका अनुभव है। सुखानुभवके समय सातावेदनीय तथा दुःखानुभवके समय असाता वेदनीयका उदय भी रहता है । वेदनीय बाहरी सामग्रीका निमित्त मिलादेती है। यदि मोहनीयका उदय न हो और यह मात्मा वीतरागी रहे तो रागद्वेषकी प्रगटता न होनेसे इस वीतरागीको साता या असाता कुछ भी अनुभवमें न आएगी इसकारण एक अपेक्षासे रागका अनुभव सुख व द्वेषका. अनुभव दुःख है। वास्तव, कषायका स्वाद सांसारिक सुख व दुःख है इसलिये. यह
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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