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________________ २८० ] areerसार भांपाठीका । उत्थानका पूर्व कहे प्रमाण शुभोपयोग से होनेवाले इंद्रिय सुखको विश्वसे दुःखरूप जानकर उस इंद्रियं सुखके साधक शुभurrent भी शुभयोगकी समानता में स्थापित करते हैं । . णरणारयतिरियसुरा, भजति जदि देहसंभवं दुक्खं । for मोहो व अहो, उपभोगो हवदि जीवाण नरनार्कतिर्यक्सुरा भजंति यदि देवसंभवं दुःखम् । कथं शुभाशुभ उपयोगो भवति जीवानाम् ॥७६॥ सामान्यार्थ मनुष्य, नारकी, पशु और देव जो शरीरसे उत्पन्न हुई पीड़ाको सहन करते हैं तो नीवोंका उपयोग शुभ या अशुभ कैसे होता है अर्थात् निश्चयसे अशुभ ही है ।, अन्वय सहित विशेषार्थ:- ( नदि) जो (णरणास्यतिरियसुग) मनुष्य, नारकी, पशु और देव स्वाभाविक मर्तीद्रिय अमूर्ती सदा आनन्दमई जो सच्चा सुख उसको नहीं प्राप्त करते हुए ( देह संभवं दुःखं अति) पूर्वमें कहे हुए निश्चय सुखसे विलक्षण पंचेंद्रियमई शरीरसे उत्पन्न हुई पीड़ाको ही निश्च यसे सेवते हैं तो ( जीवाणं सो सुहो वा असुहो उपभोगो किव saft) जीवोंके भीतर वह शुभ या अशुभ उपयोग को शुद्धोपयोगसे भिन्न है व्यवहारसे भिन्न होनेपर भी किस तरह भिन्नताको रखे मक्ता है ? अर्थात् किसी भी तरह भिन्न नहीं है। एकरूप ही है । भावार्थ - यहां आचार्यने सांसारिक दुःख तथा सुखको समान बता दिया है। क्योंकि दोनों ही आकुलतारूप व मात्माकी शुद्ध परिणति से विलक्षण तथा बंध रूप हैं । जैसे शरीर में
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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