SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमवचनसार भापाटीका। [२७९ योग्य है। यह बात अच्छी तरह ध्यानमें लेनेकी है कि सुख निराकुलता रूप है यह निज आत्म ध्यानमें ही प्राप्त होसका है। पर पदार्थोंमें रागद्वेष करना सदा ही भाकुलताका भूल है। ये रागद्वेष विषयकी भाशक्तिके वश होनाते हैं इसलिये विषय सुखकी भाशक्ति बिलकुल छोड़ने योग्य है। श्री समंतभद्राचार्यने स्वयंभू स्तोत्रमें यही भाव पर्शाया हैस चानुषन्धोस्य जनस्य तापक पोभिवृद्धिः मुखतो न च स्थिति। इति प्रभो लोकहितं यतो मतं, ततो भवानेवगतिः सतां मतः ॥ २०॥ भाव यह है कि यह विषयोंकी भाशक्ति मनुष्यको लेश देनेवाली है तथा कृष्णाकी बराबर वृद्धिको करनेवाली है । तथा विषयसुखको पाकर भी इस प्राणीकी अवस्था मुख व संतोषरूप नहीं रहती है । जबतक एक पदार्थ मिलता नहीं उसके मिकनेकी आकुलता रहती, यदि वह मिल जाता है तो उसकी रक्षाकी आकुलता रहती, यदि वह नष्ट होजाता है तो उसके वियोगकी भाकुलता रहती है । एक विषय मिलनेपर संतोषसे बैठना होता नहीं अन्य अन्य विषयकी तृष्णा बढ़ती चली जाती है । हे प्रमु! अभिनंदन स्वामी ! आपका लोकोपकारी ऐसा मत है इसी लिये मोक्षार्थी ज्ञानी पुरुषों के लिये माप ही शरणके योग्य हैं । ऐसा जान इंद्रिय मुस्खको सुखरूप नहीं किन्तु दुःखरूप समझकर अतींद्रिय सुखके लिये निन भात्माका अनुभव शुद्धोपयोगके द्वारा करना योग्य है ॥ ७॥
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy