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________________ २६८ ] arrainer भाषाटीका । पूजामें तथा दानमें वा सुन्दर चारित्रमें वा उपवासादिकोंमें लवलीन है वह शुभोपयोगमई आत्मा है । अन्वय सहित विशेषार्थ - मो (देवदनदिगुरुपुंनासु) देवता, यति, गुरुकी पूजा में ( चैव दाणम्मि ) तथा दानमें (वा सुसीले ) और सुशीलरूप चारित्रोंमें ( उववासादिसु ) तथा उपवास आदिकोंमें ( रत्तो ) आसक्त हैं वह ( सुहोओगप्पगो अप्पा ) शुभोपयोग धारी मात्मा कहा जाता है। विशेष यह है कि जो सर्व दोष रहित परमात्मा है वह देवता है, जो इन्द्रियोंपर विनय प्राप्त करके शुद्ध आत्मा के स्वरूपके साधन में उद्यमवानं है वह यति है, जो स्वयं निश्चय और व्यवहार रत्नत्रयका आराधन - करनेवाला है और ऐसी माराधना के चाहनेवाले भव्योंको जिन -दीक्षाका देनेवाला है वह गुरु है । इन देवता, यत्ति और गुरुओकी तथा उनकी मूर्ति आदिकोंकी यथासंभव अर्थात् जहां जैसी संभव हो वैसी द्रव्य और भाव पूजा करना, आहार, अभय, औषधि और विद्यादान ऐसा चार प्रकार दान करना, आचारादि ग्रंथों में कहे प्रमाण शीलव्रतोंको पालना, तथा जिनगुणसंपत्तिको आदि -लेकर अनेक विधि विशेषसे उपवास आदि करना - इतने शुभ कार्यों में लीनता करता हुआ तथा द्वेषरूप भाव व विषयोंके - अनुराग रूप भाव यदि अशुभ उपयोगसे विरक्त होता हुआ नीव शुभोपयोगी होता है ऐसा सूत्रका अर्थ है । भावार्थ - यहां आचार्य शुद्धोपयोगमें प्रीतिरूप शुमोपयोगका स्वरूप बताया है अथवा अरत सिद्ध परमात्माके मुख्य -ज्ञान और आनन्द स्वभावका वर्णन करके उन परमात्माके आरा
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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