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________________ श्रीप्रवचनसार भाषाटीकां। [९ स्वामीको उनके गुण स्मरणरूप भाव और वचन कार्य नमन रूप द्रव्य नमस्कार किया है । इस मंगलाचरणसे आचायने अपनी प्रमाणता भी प्रगट की है कि हम श्री पद्धमान तीर्थकरके ही अनुयायी हैं और उन्हींक ज्ञान समुद्रका एक विंदु लेकर हमने अपना हित किया है तथा परहितार्थ कुछ कहनेका उद्यम बांधा है। उत्थानिका-आगेकी गाथामें आचार्यने अन्य २३ तीर्थकर तथा अन्य चार परमेष्ठियोंको नमस्कार किया हैसेसे पुण तिस्थयरे, ससव्वसिद्धे विसुखसम्भावे । समणे य णाणदसण परित्ततक्वीरियायारे ॥२॥ शेषान् पुनस्तीर्थकरान् ससर्वसिद्धान् विशुद्धसद्भावान् । श्रमणांश्च शानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचारान् ॥ २ ॥ सामान्धार्थ-तथा मैं निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभावधारी शेष श्री वृषभादि पावनाय पर्यंत २३ तीर्थकरोंको और सर्व सिद्धोंको तथा ज्ञान दर्शन चारित्र, तप वीर्यरूप पांच वरहके आचारको पालनेवाले आचार्य, उपाध्याय तथा साधुओंको नमस्कार करता हूँ। अन्वय सहित विशेषार्थ-(पुण ) फिर मैं (वि. सुखसमावे) निर्मल मात्माके अनुभवके वलसे सर्व आवरणको दुरकर केवल ज्ञान केवल दर्शन स्वभावको प्राप्त होनेवाले ( सेसे तित्थयरे ) शेष वृषभ मादि पार्श्वनाथ पर्यंत १३ तीर्थकरोंको (ससबसिद्धे ) और शुद्ध आत्माकी प्राप्ति रूप सर्व सिद्ध महारानोंको (य) तथा (गाणदसणचरित्ततवयीरियायारे ) सर्व प्रकार
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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