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________________ AM wimmiumm श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [२६९. सामान्यार्थ-जैसे भाकाशमें सूर्य स्वयं ही तेन रूप, उप्णरूप तथा देवता पदमें स्थित ज्योतिषी देव है तैसे इसलोकमें सिद्ध भगवान भी ज्ञान स्वभाव, सुख स्वभाव तथा भगवान हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ:-(नभसि) आकाशमें (सयमेव जधादिच्चो) जैसे दूसरे कारणकी अपेक्षा न करके स्वयं ही सूर्य (तेलो) अपने और दुसरेको प्रकाश करनेवाला तेनरूप है (उण्हो य) तथा स्वयं उष्णता देनेवाला है (देवदा य) तथा देवता है अर्थात् ज्योतिषीदेव है अथवा. अज्ञानी मनुष्योंके लिये पूज्य देव है (तघा) तैसे ही (लोगे ) इस लोकमें (सिद्धो वि गाणं सुहं च तवा देवो) सिद्ध भगवान भी दुसरे कारणकी अपेक्षा न करके स्वयं ही स्वभावसे स्व पर प्रकाशक केवलज्ञानस्वरूप हैं तथा परम तृप्तिरूप निराकुलता लक्षणमई सुख रूप हैं वैसे ही अपने शुद्ध पात्माके सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान तथा चारित्ररूप अभेद रत्नत्रयमई निर्विकल्प समाधिसे पैदा होनेवाले सुंदर आनन्यमें भीगे हुए सुखरूपी अमृतके प्यासे गणधर देव आदि पाम योगियों, इन्द्रादि देवों व अन्य निकट भव्योंकि मनमें निरन्तर भले प्रकार आराधने योग्य तैसे ही अनंतज्ञान आदि गुणों के स्तवमसे स्तुति योग्य जो दिव्य आत्मस्वरूप उस स्वभावमई होनेसे देवता हैं। इससे जाना जाता है कि मुक्त प्राप्त आत्माओंको विषयोंकी सामग्रीसे भी कुछ प्रयोजन नहीं है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने पूर्वकथित गाथामोकासार खींचकर बता दिया है कि शुद्ध भात्माका स्वभाव केषरज्ञानमय है और भी द्रय आनंदमय है न उसके पास कोई मज्ञान है'
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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