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________________ vewwww maw २५८] श्रीमक्चनसार भाषाटीका:। नेका स्वभाव दृष्टिमें ही है। यह संसार अधेरी रात्रिके समान है। अज्ञानी मोही बहिरात्मा जीवोंकी दृष्टि मात्मीक सुखको अनुभव करने के लिये असमर्थ है । इसलिये बाहरी पदार्थीका ' निमित्त मिलाकर वे जीव सांसारिक तथा काल्पनिक.सुखको सुख मानकर रंजायमान होते हैं। वहां भी उनके ही मुख गुणका उनको मनुभव हुआ है परन्तु वह विमावरूप भया है। इस बातको मोही. जीव नहीं विचारते हैं। मैसे कोई मूर्ख रात्रिको दीपकसे देखता हुमा यह माने कि दीपा दिखाता है। मेरी आंख 'देखती है दीपक मात्र सहायक है ऐसा न समझे तैसे अज्ञानी मोही जीव यह समझता है कि पर पदार्थ सुख या दुःख देते हैं। मेरेमें स्वयं सुख है और वह एरपदार्थके निमित्तसे मुझे भासा है इस बातका ज्ञान अकान मज्ञानियों को नहीं होता है। यहां प्राचार्यने मवेत किया है कि सात्मा स्वयं भानन्दरूप है। इसलिये 'शरीर व . विषयोंको सुखदाई दुःखटाई मानना केवल मोहका मह त्म्य है। ऐमा मानकर ज्ञानोका काव्य है कि साम्यमानमें ठहरनेका अभ्यास करे जिससे निज सुखमा स्वयं अनुभव हो-ऐसा तात्पर्य है ॥१९॥ ___ उत्थानिका-आगे आत्मा सुख स्वभाववाला भी है ज्ञान स्वभाववाला भी है इसी बात को ही दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैंसपनेच अधादियो, जो उण्होय देखदा भनि। सिछोविनया गाण, सुहं च लोगे तथा देवो Insol म्वयमेव यादवलेकः उष्ण देवता नभसि ।। सिद्धी तथा ज्ञानं सारे तथा देवः ॥ ४० ॥
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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