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________________ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [२३९' इसलिये यही सुख सबसे बढ़कर है, ऐसा जान समता ठान व रागद्वेष हानकर निश्चित हो निन स्वरूपके विकाशका अर्थात् केवलज्ञानके उदयका नित्य पुरुषार्थ करना चाहिये। और वह पुरुषार्थ स्वात्मानुभवके द्वारा निजानन्दका लाभ । जेसा साध्य वैसा तैसा साधन होता है तब ही साध्यकी सिद्धि अनिवार्य होती है। वृत्तिकारने जो इस बातको स्पष्ट किया है कि जब गृहस्थ सम्यग्दृष्टीको सच्चे सुखका लाभ होने लगता है फिर वह इन्द्रियों के भोगोंके व मानसिक कषायजनित सुखोंमें क्यों वर्तन करता है उसका भाव यही समझना चाहिये कि सम्यग्दृष्टीके अच्छी तरहसे विषयभोगजनित व कषायजनित सुखसे उदासीनता होगई है। वह श्रद्धान अपेक्षा तो अच्छी तरह होगई है परन्तु चारित्रकी अपेक्षा नितना चारित्र मोहका उदय है उतनी ही उस उदासीनतामें कमी है इसलिये कायका जब तीव्र उदय जाता है तब वेवश हो कषायके अनुकूल विषय भोग कर लेता है फिर कपायके घटने पर अपना निन्दा गर्दा करता है। उसकी दशा उस चोरके समान दंड सहनेको होती है जो दंड सहना न चाहता हुआ भी कोतवाल द्वारा बल पूर्वक पकड़ा जाकर दंडित किया जाता है अथवा उस रोगीके समान होती ह जो कड़वी औषधि खाना नहीं चाहता है परन्तु वैद्यकी भाज्ञासे लाचारीसे खा पी लेता है अथवा उस मनुष्य के समान होती है जो मादक वस्तुसे सर्वथा त्यापकी रुचि कर चुका है परन्तु पूर्व मम्याप्तके वश जन स्मृति आती है तब कुछ पीलेता है उसका फल बुरा भोगता है-पछताता है-अपनी निन्दा गर्दा करता है ।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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