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________________ २३८] श्रीमवचनसार भाषाटीका । करा दिया तब जो मनमें खुशी होती है वह मानसिक कषायननित सुख है । इसी तरह मान कषायवश किसीका अपमान करके कराके व हुमा सुनके मायाकषायके वश किसीको स्वयं ठगके, व उसको प्रपंच में फंसाके व वह ठगा गया ऐसा सुनके तथा लोभ कवायवश उसे कुछ प्राप्त करके, किसीको प्राप्त कराके व किसीको कुछ धनादि मिला ऐसा सुनके जो कुछ मनमें खुशी होती है वह मानसिक कषायजनित सुख है-यह इन्द्रिय व मनसे उत्पन्न सर्व सुख त्यागने योग्य हैं-एक मतींद्रिय आनन्द ही ग्रहण 'करने योग्य है-वह भी नीचे गुणस्थानके अनुभवके योग्य नहीं किन्तु वह नो घातिया कोके नाशसे परमात्माके उदय होनाता है-यही सुख सबसे उत्तम है। ऐसा सुख न गृहस्थ सम्बग्हष्टियोंके है न परिग्रह त्यागी साधुओंके है । यद्यपि जाति समान है परन्तु उज्वलता व स्पष्टता तथा बलमें अंतर है। ज्यों २ कषायं घटता है उज्वलता बढ़ती है, ज्यों २ अज्ञान घटता है स्पष्टता बढ़ती है, ज्यों २ अंतराय क्षय होता है, चल बढ़ता है। बस जब शुद्धता, स्पष्टता तथा पुष्टताके घातक सब आवरण चले गए तब यह अतीन्द्रिय सुख अपने पूर्ण स्वभावमें प्रगट होजाता है। और फिर अनन्त कालके लिये ऐसा ही चला नायगा इसमें एक समयमात्रके लिये भी अन्तर नहीं पड़ेगा। जिनके अंतर्मुहूर्त पर्यंत ध्यान होता है और फिर ध्यान बदलता है उनके तो इस सुखके भास्वादमें अंतर पड़नाता है परंतु केवलज्ञानियोंके सदा ही परम निर्मल शुद्धोपयोग है जिसका आधार पूर्ण निर्मल अनंत और अपूर्व महात्म्ययुक्त केवलज्ञान है
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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