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________________ ४] . श्रीभवचनसार भाषालीका । - सामान्यार्थ-यह जी मैं 'कुन्दकुन्दाचार्य है सो चार प्रकार देवोंके और मनुष्योंके इन्द्रोंसे बंदनीक, पातिया कर्माको धोनेवाले, धर्मके कर्ता, तीर्थस्वरूप श्री वईमान स्वामीको नमस्कार करता हूं। अन्वय सहित विशेषार्थ-(एस) यह जो मैं अन्य। कार ग्रन्थ करनेका उद्यमी मया हूं और अपने ही द्वारा अपने आत्माका अनुभव करनेमें लवलीन हूं सो (सुरासुरमणुसिंद वंदिद) तीन जगतमें पूजने योग्य अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य मादि गुणों के आधारभूत अईतश्दमें विराजमान होनेके कारणसे तथा इस पदके चाहनेवाले तीन भवनके बड़े पुरुषों द्वारा भले प्रकार जिनके चरणकमलोंकी सेवा की गई है इस कारणसे स्वर्गवासी देवों और भवनवासी व्यंतर ज्योतिषी देवोंके इंद्रोसे वंदनीक, (घोरघाइकम्ममलं) परम आत्म लवलीनता रूप समाधि भावसे जो रागद्वेषादि मलोंसे रहित निश्चय आत्मीक सुखरूपी अमृतमई निर्मल जल उत्पन्न होता है उससे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार घालिया को मलको धोनेवाले अथवा दूसरों के पापरूपी मलके धोनेके लिये निमित्त कारण होनेवाले, ( धम्मस्स कत्तारं ) रागादिसे शून्य निज आत्मतत्वमें परिणमन रूप निश्चय धर्मके उपादान कर्ता अथवा दुप्सरे जीवोंको उत्तम क्षमा आदि अनेक प्रकार धर्मका उपदेश देनेवाले (वित्थ) तीर्थ अर्थात देखे, सुने, अनुभवे इन्द्रियों के विषय सुखकी इच्छा रूप जलके प्रवेशसे दूरवर्ती परमसमाधि रूपी जहाज पर.चढ़कर संसारसमुद्रसे तिरनेवाले अथवा दुसरे जीवोंको संसार सागरसे
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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