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________________ श्रीमवचनसार भाषाका । [ २०३ शोंके द्वारा समतारससे पूर्णभाव के साथ परिणमन कर रहा है वैसा ज्ञेय पदार्थोके स्वरूप नहीं परिणमन करता है अर्थात् आप अन्य पदार्थरूप नहीं हो जाता है । ( ण गेहदि ) और ' न उनको ग्रहण करता है अर्थात् जैसे वह आत्मा अनंत ज्ञान आदि अनंत चतुष्टय रूप अपने आत्माके स्वभावको आत्मा के स्वभाव रूपसे ग्रहण करता है वैसे वह ज्ञेय पदार्थो स्वभावको ग्रहण नहीं करता है । (णे उप्पज्जदि) और न वह उन रूप पैदा होता है अर्थात् जैसे वह विकार रहित परमानंदमई एक सुखरूप अपनी ही सिद्ध पर्याय करके उत्पन्न होता है वैसा वह शुद्ध आत्मा ज्ञेय पदार्थों के स्वभावमें पैदा नहीं होता है | ( तेण) इस कारण से (अबंधगो) कर्मोंका बंध नहीं करने • वाला (पण्णत्तो) कहा गया है । भाव यह है कि रागद्वेष रहित ज्ञान का कारण नहीं होता है, ऐसा जानकर शुद्ध आत्माकी प्राप्ति रूप है लक्षण जिसका ऐसी जो मोक्ष उससे उल्टी जो नरक नादिके दुःखोंकी कारण कर्म बंधकी अवस्था, जिस बंध अवस्थाके कारण इंद्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाले एक देश ज्ञान उन सर्वको त्यागकर सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञान जो कर्मका बंघका कारण नहीं है उसका बीजभूत जो विकार रहित स्वसंवेदन ज्ञान या स्वानुभव उसीमें ही भावना करनी योग्य है ऐसा अभिप्राय है । ? भावार्थ - इस गाथा में आचार्य ने बताया है कि केवलज्ञान' या शुद्ध ज्ञान या वीतराग ज्ञान बंधका कारण नहीं है । वास्तव में. ज्ञान कभी भी वैधका कारण नहीं होता है चाहे वह मति श्रुत'
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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