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________________ २०२] श्रीमवचनसार भाषाटीका । जानता है ऐसा कहते हुए दूसरी, फिर नो एकको नहीं जानता - है वह सबको नहीं जानता है ऐसा कहते हुए तीसरी, फिर क्रमसे होनेवाले ज्ञानसे सर्वज्ञ नहीं होता है ऐसा कहते हुए चौथी, तथा एक समयमें सर्वको जाननेसे सर्वज्ञ होता है ऐसा कहते हुए पांचमी इस तरह सातवें स्थलमें पांच गाथाएं पूर्ण हुई। उत्यानिका-आगे पहले को यह कहाथा कि पदार्थोका ज्ञान होते हुए भी राग द्वेष मोहका अभाव होनेसे केवल ज्ञानियोंको बंध नहीं होता है उसी ही अर्थको दूसरी तरहसे दृढ़ करते हुए ज्ञान प्रपंचके अधिकारको संकोच करते हैं। ण वि परिणमदि ण गेण्हदि, उप्पनदि णेव तेसु अत्थे। जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पाणतो ॥५२ नापि परिणमति न गृह्णाति उलघवे नैव वेष्वर्येषु । जानन्नपि वानात्मा अबन्धकस्तेन प्रजतः ॥ ५२॥ सामान्यार्थ-केवलज्ञानीकी आत्मा उन सर्व पदार्थोको जानता हुआ भी उन पदार्थोंके स्वरूप न तो परिणमता है, न उनको गृहण करता है और न उन रूप पैदा होता है इसी लिये वह अबंधक कहा गया है। अन्वय सहित विशेषार्थ-( आदा ) भात्मा अर्थात मुक्त स्वरूप केवलज्ञानी या सिद्ध भगवानकी आत्मा (ते जाणणण्णवि) उन ज्ञेय पदार्थो को अपने आत्मासे भिन्न रूप जानते हुए भी ( तेसु अत्थेसु) उन ज्ञेय पदार्थोके स्वरूपमें (ण वि परिणमदि) न तो परिणमन करता है अर्थात् जैसे अपने आत्म प्रदे
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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