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________________ १९८ ] श्रीमवचनसार भाषाटीका | पदार्थों का ज्ञान किन्तु एक काल एक ही इन्द्रियसे जान सकता है। उसमें भी थोड़े विषयको जान सकता है उस इन्द्रिय द्वारा ग्रहण योग्य सर्व विषयको नहीं जानता है। आंखोंसे पहले थोड़े से पदार्थ, फिर अन्य फिर अन्य इस तरह क्रमसे दी अवग्रह ईहा आदिके क्रमसे होता है । धारणा होजाने पर भी यदि पुनः पदार्थका स्मरण न किया जाय तो वह बात भुला दी जाती है । तथा जो पदार्थ नष्ट होजाते हैं उनका ज्ञान कालान्तर में नहीं रहता है । इसी तरह श्रुतज्ञान जो अनक्षरात्मक है वह मतिज्ञान द्वारा ग्रहीत पदार्थके आश्रयसे अनुभव रूप होता है और जो अक्षरात्मक है वह शास्त्र व वाणी सुनकर या पढ़कर होता है । शास्त्रज्ञान क्रमसे ग्रहण किया हुआ क्रमसे ही ध्यानमें बैठता है । तथा कालान्तर में बहुतप्ता भुला दिया जाता है । अवधिज्ञान भी किसी पदार्थकी ओर लक्ष्य दिये जाने पर उसके सम्बन्धमें आगे व पीछेके भवका ज्ञान कमसे द्रव्य क्षेत्रादिकी मर्यादा पूर्वक करता है। सो भी सदा एकसा नहीं बना रहता है । विषयकी अपेक्षा बदलता रहता है व विस्मरण होजाता है । यही हाल मन:पर्ययका है, जो दूसरेके मनमें स्थित पदा को क्रमसे जानता है । इस तरह ये चारों ही ज्ञान क्रमसे जाननेवाले हैं और सदा एकता नहीं जानते । विषयकी अपेक्षा ज्ञान 1 नष्ट होजाता है और फिर पैदा होता है । इसलिये ये केवलज्ञानकी तरह नित्य नहीं हैं, जब कि केवलज्ञान नित्य है । वह ज्ञान विना किती क्रमके सर्व द्रव्योंकी सर्व पर्यायोंको सदाकाल एकसा जानता रहता है । चारों ज्ञानोंमें क्रमपना व अनित्यपना व 1 4
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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