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________________ AAAAAAAAAAAAAA श्रीप्रवचनसार भापाटीका। ।२९७ (पडुच्च ) आश्रय करके (कमसो) क्रमसे (उप्पजदि) पैदा होता है। तो (तं) वह ज्ञान (णिञ्च ) अविनाशी (णेव) नहीं (हवदि ) होता है अर्थात् नित पदार्थके निमित्तसे ज्ञान उत्पन्न हुआ है उस पदार्थके नाश होने पर उस पदार्थका ज्ञान भी नाश होता है इसलिये वह ज्ञान सदा नहीं रहता है इससे नित्य नहीं है । (ण खाइगं ) न क्षायिक है क्योंकि वह परोक्ष ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमके आधीन है (णेव सव्वगदं) और न वह सर्वगत है, क्योंकि जब वह पराधीन होनेसे नित्य नहीं है, क्षयोपशमके आधीन होनेसे क्षायिक नहीं है इसी लिये ही वह ज्ञान एक समयमें सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावोंको जाननेके लिये मसमर्थ है इसी लिये सर्वगत नहीं है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो ज्ञान क्रमसे पदार्थोंका आश्रय लेकर पैदा होता है उस ज्ञानके रखनेसे सर्वज्ञ नहीं होता है। भावार्थ-यहां आचार्य केवलज्ञानको ही जीवका स्वाभाविक ज्ञान कहने के लिये और उसके सिवाय जितने ज्ञान हैं उनको वैभाविक ज्ञान कहनेके लिये यह दिखलाते हैं कि जो ज्ञान पदाथोंका आश्रय लेकर क्रम क्रमसे होता है वह ज्ञान स्वाभाविक नहीं है । न वह नित्य है, न क्षायिक है और न सर्वगत है। ‘मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यय ज्ञान ये चारों ही किसी भी पदार्थको क्रमसे जानते हैं-जब एकको जानते हैं तब दूसरेको नहीं जान सके । जैसे मतिज्ञान जर वर्णको जानता है तब रसको विषय नहीं कर सकता और न मनसे कुछ ग्रहण कर सकता है। पांच इंद्रिय और मन द्वारा मतिज्ञान एक साथ नहीं जान सकता
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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