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________________ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।। ६१९१ और जो सर्वको माननेको समर्थ नहीं है उसका ज्ञान पशुड़ है. तब वह एक अपने आत्माको भी स्पष्ट पूर्णपने नहीं जान सकेगा। यहां दृष्टांत दिये हैं सो सब इसी बातको स्पष्ट करते हैं । जो अग्नि सर्व इंघनको जलावेगी वह अग्नि सब इंधनरूप परिणमेगी। तब जो दायको जानोगे तो दहकको भी जानोगे । यदि दाह्यः धनको नहीं देख सक्ते तो अग्निको भी नहीं देख सके जो सर्व ईघनमें व्यापक है। जो सुर्य व.दीपक, व दर्पणद्वारा काष्टिद्वारा प्रतिविम्बित पदार्थोको जान सकेगा वह क्या सूर्य, दीपक दर्पण व दृष्टिवाले पुरुषको न जान सकेगा ? अवश्य जान सकेगा। इसी तरह जो सर्वको जानेगा वह सर्वके जाननेवाले आत्माको भी जान सकेगा। जो सर्वको न जानेगा वह निज ज्ञायक आत्माको भी नहीं जान सकेगा। इस भावके सिवाय गाथासे यह भाव भी प्रगट होता है कि जो सर्व ज्ञेयोंको एक कालमें नहीं नान सकेगा वह एक द्रव्यको भी उसकी अनंत पर्यायोंके साथ नहीं जान पकेगा। एक कालमें सर्व क्षेत्रमें पै.ले दुपदार्थाको मानना क्षेत्र अपेक्षा विस्तारको मानना है । तथा एक क्षेत्रमें स्थित किसी पदार्थको उसकी भूत भविष्यत् पर्यायोंको जानना काल अपेक्षा विस्तारको जानना है । क्षेत्र अपेक्षा लोकाकाश मात्र असंख्यात प्रदेशरूप है यद्यपि अलोकालाश अनंत है तथा काल अपेक्षा एक द्रव्य अनंतानंत .. समयोंमें होनेवाली. पर्यायोंकी. अपेक्षा अनंतानंतरूप है। जो लोकाकाशके क्षेत्र विस्तारको एक समयमें जाननेको समर्थ नहीं है वह उसके अनंतगुणे. काल 'विस्तारको कैसे जान सकेगा ! अर्थात् नहीं जान सकेगा । किसी
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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