SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९० ] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । उस ईनके आकार नहीं परिणमन होती है वैसे ही आत्मा भी पूर्व में कहे हुए सर्वज्ञेयोंको न जानता हुआ पूर्व में कहे हुए लक्षणरूप सर्वको जानकर एक अखंडज्ञानाकाररूप अपने ही आत्माको नहीं परिणमाता है अर्थात सर्वका ज्ञाता नहीं होता है। दुमरा भी एक उदाहरण देते हैं | जैसे कोई अन्धा पुरुष सूर्य्यसे प्रकाशने योग्य पदार्थोंको नहीं देखता हुआ सूर्य्यको भी नहीं देखता, दीपकसे प्रकाशने योग्य पदार्थो को न देखता हुआ दीपकको भी नहीं देखता, दर्पण में झलकती हुई परछाई न देखते हुए दर्पणको भी नहीं देखता, अपनी ही दृष्टिसे प्रकाशने योग्य पदार्थों को न देखता हुआ हाथ पग आदि अंगरूप अपने ही देहके आकारको अर्थात् अपनेको अपनी दृष्टिसे नहीं देखता है । वैसे यह प्रकरण में प्राप्त कोई आत्मा भी केवलज्ञान से प्रकाशने योग्य पदार्थोंको नहीं जानता हुआ सफल अखंड एक केवलज्ञान रूप अपने आत्माको भी नहीं जानता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि जो सर्वको नहीं जानता है वह आत्माको भी नहीं जानता है । 1 भावार्थ - यहां आचार्यने केवलज्ञानकी महिमाको बताते हुए गाथा में यह बात झलकाई है कि जो कोई तीन लोकके सर्व पदार्थोको एक समय में नहीं जानता है वह एक द्रव्यको भी पूर्णप नहीं जानसक्ता । वृत्तिकारने यह भाव बताया है कि अपना आत्मा ज्ञानस्वभाव होनेसे ज्ञायक है। जब वह ज्ञान शुद्ध होगा - तो सर्व द्रव्य पर्याय मई ज्ञेयरूप यह जगत उस ज्ञानमें' प्रतिबिजित होगा अर्थात् उनका ज्ञानाकार परिणमन होगा । इसलिये जो सर्वको जान सकेगा वह अपने आत्माको भी यथार्थ जानसकेगा
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy