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________________ १७४.] - श्रीमवचनसार :भाषाटीकाः। पूर्वक विना इच्छाके होते हैं । हम इनमें से बहुतसे व्यापारीके होनेकी व न होनेकी पहलेसे भावना रखते हैं तथा उनके होनेपर किन्हींमें राग व किन्हींमें द्वेष, करते हैं इससे हम कर्मबंधको प्राप्त होते हैं । जैसे हम सदा निरोगतासे राग करते तथा सरोगतासे द्वेप करते हैं, पौष्टिक इन्द्रियोंकी चाह रखते हैं, निर्बलतासे हेप करते हैं । जब हमारी इस चाहके अनुसार काम होता है तो और अधिक रागी होजाते हैं। यदि नहीं होता है तव और अधिक द्वेषयुक्त होजाते हैं । इस कारणसे यद्यपि हमारे भीतर भी बहुतंसी क्रियायें उस समय विशेष इच्छाके विना मात्र कर्मोके उदयसे हो जाती हैं तथापि हम उनके होते हुए रागद्वेष मोह ' कर लेते हैं। इससे हम अल्पज्ञानी अपनी कषायोंके अनुसार कर्मबंध करते हैं। केवली भगवानके भीतर मोहनीय कर्मका सर्वथा अभाव है इस कारण उनमें न किसी क्रिया के लिये पहले ही बांछा होती है न उन क्रियाकि होनेपर रागद्वेष मोह होता है इस कारण जिनेन्द्र भगवान कर्मबंध नहीं करते हैं। जैसे जिनेन्द्र भगवान कर्मबन्ध नहीं करते हैं वैसे उनके भक्त जिन जो सम्यग्दष्टी गृहस्थ या मुनि हैं वे भी संसारका कारणीभूत कर्मबंध नहीं करते हैं-जितना कपायका उदय होता है उसके अनुसार अल्पकर्मबंध करते हैं जो मोक्ष मार्गमें बाधक नहीं होता है । सम्यग्दृष्टी तथा मिथ्यादृष्टी प्रगट व्यवहारमें व्यापार, कृषि, शिल्प, खान, पान, भोगादि समान रूपसे करते हुए दिखाई पड़ते हैं तथापि मिथ्यादृष्टी उनमें आशक्त है :इससे ससारका कारण कर्म बांधता है। किंतु सम्यग्दृष्टी उनमें भाशक नहीं है
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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