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________________ १३४] श्रीप्रवचनसार भापाटीका। रपारूप है और क्षायिक है जब कि श्रुतज्ञान परोक्ष है, मनकी सहायतासे प्रवर्तता है, एक देश निरावरण अर्थात क्षयोपशम रूप है। केवलज्ञान सूर्यके समान है, श्रुतज्ञान दीपकके समान है। सूर्य खाधीनतासे प्रकाशमान है। दीपक तैलकी सहायतासे प्रकाश होता है । यद्यपि एक स्वाधीन दुसरा पराधीन है तथापि जैसे सूर्य घट पट आदि पदार्थोंको घट पट मादि रूप दर्शाता है वैसे दीपक घटपट आदि पदार्थोकी घटपट आदि रूप दर्शाता है अंतर इतना ही है कि सूर्यके प्रकाशमें पदार्थ पूर्ण स्पष्ट तथा दीपकके प्रकाशमें अपूर्ण अस्पष्ट दीखता है। श्रुतज्ञान द्वादशांग रूप जिनवाणीसे मात्मा और अनात्माके भेद प्रभेदोंको इतनी अच्छी तरह जान लेता है कि आत्मा विलकुल अनात्मासे भिन्न झलकता है । द्रव्य श्रुतज्ञानके द्वारा आत्माका स्वरूप लक्ष्यमें लेकर वार वार विचार किया जाता है और यह भावना की जाती है कि जैसा आमाका स्वभाव है वैसा ही मेरा स्वभाव है। ऐसी मावनाके हद संस्कारके बलसे ज्ञानोपयोग स्वयं इस माम स्वभावके श्रद्धा भावमें स्थिति प्राप्त करता है । जव स्थिति होती है तब स्वानुमत्र जागृत होता है। उस समय जो आत्माका दर्शन व उसके सुखका बेदन होता है वह अपनी जातिमें केवलज्ञानीके स्वानुभवके समान है। इसलिये श्रुतज्ञानीके खानुभवको भाव श्रुतज्ञान तथा केवलज्ञानीके स्वानुभवको भाव केवलज्ञान कहते हैं। यह भाव केवलज्ञान अब सर्वथा निरावण और प्रत्यक्ष है तब यह भाव श्रुतज्ञान क्षयोपशम रूप स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है। भावनाके दृढ़ १. अभ्यासके बलसे आत्माकी ज्ञानज्योति स्फुरायमान होजाती है।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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