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________________ श्रीnaurसा मापाका | [ ११३ अन्य किसी कारण विना. दूसरे द्रव्यों में न पाइये ऐसे असाधारण अपनेआपसे अपने में अनुभव आने योग्य परम चैतन्यरूप सामान्य लक्षणको रखनेवाले तथा परद्रव्यसे रहितानेके द्वारा केवल ऐसे आत्माका आत्मामें स्वानुभव करनेसे जैसे भगवानकेवली होते हैं वैसे यह गणवर आदि निश्चय रत्नत्रयके आराधक पुरुष भी पूर्व में कहे हुए चैतन्य लक्षणधारी आत्माका भाव श्रुतज्ञानके द्वारा अनुभव करने से श्रुतकेवली होते हैं । प्रयोजन यह है कि जैसे कोई भी देवदत्त नामका पुरुष सूर्यके उदय होनेसे दिवसमें देखता. है और रात्रिको दीपक द्वारा कुछ भी देखता है वैसे सूर्यके उदयके समान केवलज्ञानके द्वारा दिवसके समान मोक्ष अवस्थाके होते हुए भगवान केवली मात्माको देखने हैं और संसारी विवेकी जीव रात्रि के समान संसार अवस्थामें प्रदीपके समान रागादि विकल्पोंसे रहित परम समाधिके द्वारा अपने आत्माको देखते हैं । अभिप्राय यह है कि आत्मा परोक्ष है। उसका ध्यान कैसे किया जाय ऐसा सन्देह करके परमात्माको भावनाको छोड़ न देना चाहिये । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने बताया है कि यद्यपि केवलज्ञान आत्माका स्वाभाविक ज्ञान है और सर्व स्वपर ज्ञेयों को एक काल जाननेवाला है इसलिये मात्माको प्रत्यक्षपने नाननेवाला है तथापि उस केवलज्ञानकी उत्पत्तिका कारण जो शुद्धोपयोग या साम्यभाव है उस उपयोगनें जो निज आत्मानुभव भावश्रुतज्ञानमई होता है वह भी निम आत्मा को जाननेवाला है । आत्माका ज्ञान जैसा केवलज्ञानको है वैसा स्वसंवेदनमई श्रुतज्ञानको है । अंतर केवल इतना ही है कि केवलज्ञान प्रत्यक्ष है, निराव
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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